सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) की निजी जिदंगी को पढ़ते हुए बार-बार यह महसूस होता है कि मंटो में एक जिद थी, उनके पास तमाम सवाल थे जिनको लगातार टाला जा रहा था. और मंटो थे कि लगातार उन सवालों को अपने जहन की आंच पर पका-पका कर और खरा कर रहा थे. मंटो ने एक जगह खुद के लिए लिखा कि मैं एक जेबकतरा हूं जो अपनी जेब खुद काटता है, और कोई कहानी मेरी जेब से कूदकर बाहर आ जाती है. यूं तो मंटो के कितने ही किससे हैं. जिन्हें बताया और बांचा जा सकता है. पर यहां जिक्र उन किस्सों का जिनके बारे में शायद आपको भी कम पता हो. मंटो जिस दौर में लिख रहे थे उसमें साहित्य की एक कसौटी उसे लिखने में लगा वक्त भी था. उस दौर में तुरंत का काम शैतान का माना जाता था. फिर साहित्य को तो समय कि आंच में पकाना- सिझाना होता था. ऐसे समय में मंटो ने 'रोज एक कहानी' लिखी.
कुल 26 कहानियां. सात कहानी 25 जुलाई 1950 से 31 जुलाई 50 के बीच और शेष उन्नीस कहानियां 11 मई 1954 से 1 जून 1954 के बीच. दूसरी बार लगातार 17 कहानियों के लिखने के छह महीने बाद मंटो इस दुनिया को अलविदा कह गए. आंकड़ों कि बात चल रही है तो यह भी जिक्र कर ही दिया जाए कि मंटो ने पाकिस्तान जाने के बाद, वहां रहने के 7 वर्षों के दौरान 127 छोटी कहानियां, लेखों का 2 संग्रह, स्केचों का दो संग्रह, अपने मुकदमों के संस्मरणों का एक संग्रह एक एक लघु उपन्यास लिखा. इस सात वर्षों में वह लंबे समय तक दो किस्तों में पगलखाने में रहे, और बीमार तो ज्यादातर समय रहे ही. आखिर ऐसा क्या था जो शरीर से लाचार उस शख्श को इतनी ताकत देता था कि वह समाज को आईना दिखाता रहा. किसी लेखक ने मंटो के बारे में लिखा कि अगर उसे लिखना नहीं होता तो शायद शराब ने उसे कब का खत्म कर दिया होता. बहरहाल, यहां मंटो कि उन 26 कहानियों में से दो का जिक्र.
पहली कहानी 'साढ़े तीन आने' : इस कहानी में सदिक़ रिजवी नाम का एक आदमी, जो जैल से छूटा हुआ कैदी है अपनी बात एक महफिल में रख रहा है? वह एक ऐसे चोर के बारे में बता रहा है जो साढ़े तीन आने चुराने के जुर्म में जेल कि सजा काट रहा है, लेकिन वह फग्गू, साढ़े तीन आने का चोर, कतई स्वभावतः चोर नहीं है. और इस बात का यकीन रिजवी को तब होता है जब अपने जेल से छूटने वाले दिन किसी का भेजा हुआ 10 रुपये का नोट रिजवी को पहुंचा देता है. रिजवी कहानी में सवाल करता है कि अगर उसने दस रुपये चुराये होते तो साढ़े तीन आने हर साल के हिसाब से उसको क्या सज़ा मिलती? वह सवाल करता है कि यदि जुर्म कि कोई सीढ़ी है तो उसके कितने जीने हैं और उन जीनों को गिन कर उस सीढ़ी को हटाने का काम किसका है? यह कहानी 26 जुलाई 1950 को लिखी गई थी, पूरी कहानी में ना तो कहीं बटवारे का ज़िक्र है, और ना ही ‘स्त्री देह का’ जिसके इर्द-गिर्द मंटो कि कहानियों को बांधने, समझने- समझाने के प्रयास लगातार होते रहे हैं. वह समय एक राष्ट्र के बनने का था. यह वही समय था जिसके लगभग 35 वर्ष पहले यानि मंटो के जन्म के आस-पास के दिनों में ब्रिटेन में डॉ हेराल्ड जे लस्की, राजनीति के व्याकरण कि भूमिका लिखते हुए राज्य में कानून कि भूमिका के बारे में लिख रहे थे कि "इसमें ना तो नैतिक और ना ही समाज शास्त्रीय विमर्श के लिए कोई स्थान हो सकता है, कानून को न्याय से पूरी तरह अलग कर दिया गया है".
दूसरी कहानी है 'शारदा' : 31 जुलाई 1950 को लिखी गई कहानी. इस दिनों सोशल नेटवर्किंग साइटों पर एक जुमला खूब चला हुआ है, जो हमारे समय के ‘थिंकिंग स्टाइल’ को बेहतरीन तरीके से सामने रखता है, यह जुमला है "Every boy wants to be first boy in a girl’s life, and every girl wants to be Last in a boys life". यह जुमला बहुत कम शब्दों में पितृसत्तात्मक समाज कलई खोलता है. मंटो की कहानी 'शारदा' भी पितृसत्ता में जकड़े ऐसे ही समाज के एक हिस्से का किस्सा है. एक बात मंटो की कहानियों में प्रमुखता से नजर आती है, वह है ‘एंड ऑफ द हीरो’. मंटो की कहानियों में पुरुष पात्रों का यथार्थ चित्रण बेहद जबरदस्त है. उसमें विभिन्न रंग हैं और चेतना के विभिन्न स्तरों पर उनके पुरुष पात्र खुलते हैं. लेकिन उनमें कहीं कोई खोखला आदर्शवाद नहीं है.
दोषी तलाशने का काम पाठक का: दरअसल, अच्छे रचनाकार की यह खासियत होती है कि वह घटनाओं को व्यक्तियों और देश काल से परे जाकर, उसकी त्वरा उसकी ईंटेंसिटी उसे चेक करता है, वह सिर्फ कहानियां लिखता है उपन्यास लिखता है, कविताएं रचता है, वह दोष नहीं देता... दोषी तलाशने का काम पाठक के ऊपर छोड़ देता है. शारदा, एक ऐसी औरत का नाम है जो जयपुर से मुंबई आई है. अपनी बहन को दलालों से छुड़ाने के लिए, वहीं उसकी मुलाकात नजीर से होती है जो एक शादी-शुदा मर्द है, नजीर को शारदा पसंद आती है वह उसके एवज में दलाल को पैसे देता है और उसके साथ समय बीतता है. लेकिन धीरे-धीरे जब नजीर के पैसे खत्म हो जाते हैं तो वह शारदा से पीछा छुड़ाने का प्रयास करने लगता है. उसे लगता है कि वह अपनी बीबी से दूर होता जा रहा है.
तो कहानी इस तरह से आगे बढ़ती है: वह शारदा को अपनी समस्या बताता है और शारदा ठेके को छोड़ कर अपनी बहन के साथ जयपुर वापस चली जाती है. और फिर एक दिन उसका नजीर को एक खत मिलता है जयपुर से, और खातों का सिलसिला शुरू हो जाता है. मुंबई में बेहद कम बोलने वाली औरत अपनी चिठ्ठियों में बेतरह बड़बोली हो गई थी. फिर समय बदलता है और नजीर कि पत्नी लाहोर चली जाती है. नजीर को मौका मिलता है, वह शारदा का भावनात्मक रूप से तो नहीं लेकिन जिस्मानी तौर पर बेहद कायल तो था ही. शारदा फिर से मुंबई आ जाती है लेकिन इस बार वह एक घरेलू औरत हो गई थी, वह नजीर से दुख सुख कि बातें करना चाहती थी. जो कि नजीर को बिलकुल पसंद नहीं आता. वह सोचता है कि यह कितना बोलने लगी है. अब नजीर को न तो शारदा के साथ हमबिस्तर होने में वो सुख मिलता और न ही विस्की पीने में... फिर एक दिन वह शारदा को कहता है कि वह मुंबई से चली जाय और शारदा चली जाती है.
मंटो की कहानियों में सेक्स : यह कहानी एक दम सपाट चलती है, बिलकुल नजीर के मनमुताबिक, कहीं कोई मिलावट नहीं, कोई जादूगरी नहीं... मंटो ने खुद कई बार लिखा कि ‘सेक्स’ उनके लिए एक ज़रूरी और महत्वपूर्ण विषय है और जो कोई भी इसे नज़र अंदाज़ करता है वह खूबसूरती का दुश्मन है. लेकिन जब हम मंटो कि कहानियों पढ़ते हैं तो वहां सिर्फ ‘सेक्स’ कि खूबसूरती ही नहीं पुरुष प्रधान समाज का ‘दोहरा’ और ‘दमनकारी रवैया भी सामने आता है.’ स्त्री विमर्श के आलोचकों ने अक्सर ही मंटो कि प्रतिबद्धता को लेकर उन्हें सवालों के घेरे में खड़ा किया है. ऐसे आलोचक यह तो मानते हैं कि एक प्रगतिशील होने के नाते मंटो ने समाज के गैर प्रगतिशील संस्थानों का पर्दाफ़ाश तो किया लेकिन जब जब मंटो को महिलाओं के पक्ष में खड़ा होना था उन्होंने ‘यू टर्न’ ले लिया. यहां एक बात समझने कि ज़रूरत है कि मंटो सकारात्मक अर्थों में मूलतः एक ‘मीडियाकर’ लेखक थे. जब तक जिंदा रहे तमाम माध्यमों के लिए लिखते रहे. और सफल भी रहे. जन माध्यमों के लिए काम करते हुए जिस तरह कि शैली विकसित हो जाती है उसका पहला गुण यह है कि लेखन बेहद वस्तुनिष्ठ और तथ्यात्मक होगा. और उसमें “क्या हो सकता है” या “क्या होना चाहिए” जैसे अर्थ देने वाले वाक्य विन्यासों का प्रयोग नहीं होगा.