लखनऊ :पश्चिमी उत्तर प्रदेश दो चरणों के अंतर्गत 113 सीटों पर चुनाव हुआ. इस दौरान तमाम सियासी समीकरणों के साथ ही इस जाट लैंड में तीन कृषि कानून और किसान आंदोलन की भी गहरी छाप देखी गई. लखीमपुर खीरी के तिकोनिया में हुए किसान और भाजपा के केंद्रीय गृहराज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्र के साथ किसानों की झड़प और चार किसानों और चार भाजपा कार्यकर्ताओं की मौत के बाद मामला और गरमा गया.
यह एक ऐसा मुद्दा था जिसे विपक्षी दलों ने भी लपकने में देर नहीं की. चुनाव के पहले ही किसान आंदोलन, इस आंदोलन में कथित तौर पर जान गवांने वाले 700 किसानों और तिकोनिया कांड के नाम पर विपक्षी दलों ने भाजपा के खिलाफ लामबंद होने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. इसी बीच राष्ट्रीय लोकदल के चौ. अजीत सिंह की मौत ने इस दल के लिए किसानों खासकर जाटलैंड के जाटों के मन में एक सहानुभूति भर दी. लोगों की सहानुभूति को देखते हुए अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी ने भी उनकी याद में बड़े किसान नेताओं को बुलाकर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया.
इस एक घटना ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी समीकरण ही बदल दिया. इस आयोजन में अजीत सिंह के कद के अनुरूप बड़ी संख्या में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक से जाट नेता आए और जयंत चौधरी के साथ अपनी सहानुभूति को व्यक्त किया. इसी बीच रालोद की बढ़ती ताकत देख समाजवादी पार्टी भी उससे हाथ मिलाने जा पहुंची. अखिलेश और जयंत चौधरी के बीच गठबंधन हो गया. इसके साथ ही किसान आंदोलन के नाम पर जाट लैंड में नए सियासी समीकरण साधने की गणित भी शुरू हो गई.
विधानसभा के पूर्व पंचायत चुनाव में उठाना पड़ा नुकसान
किसान आंदोलन ने पश्चिमी यूपी के राजनीतिक समीकरण को बदलकर रख दिया. इसी बीच यूपी में पंचायत चुनाव हुए जिसमें बीजेपी को सत्ता में रहते हुए राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ा. किसान आंदोलन के चलते पश्चिम यूपी में बीजेपी नेताओं के गांव में घुसते ही उनका विरोध शुरू हो जा रहा था. बीजेपी तमाम जतन के बाद भी यूपी में किसानों के बीच अपने पुराने विश्वास को स्थापित नहीं कर पा रही थी. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से लेकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी, आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी और बसपा सुप्रीमो मायावती तक किसानों के मुद्दे पर बीजेपी को घेरने में जुटे दिखे. वहीं, बीजेपी यूपी की सत्ता को अपने हाथों से किसी भी सूरत में जाने नहीं देना चाहती थी.
किसान आंदोलन के नाम पर जाट-मुस्लिम को साथ लाने की कोशिश
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के आंदोलन की वजह से ताकतवर जाट और मुस्लिम समुदायों के हाथ मिलाने की बात कही गई. इस समुदाय के एसपी-रालोद गठबंधन को अपना समर्थन देने की बात भी सामने आई. जानकार बताते हैं कि इस तरह यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि सारा जाट और मुस्लिम समाज एक होकर भारतीय जनता पार्टी के विरोध में चला गया है. साथ ही सपा और रालोद गठबंधन पश्चिमी यूपी से भाजपा को साफ करने जा रहा है.
वहीं, भारतीय जनता पार्टी भी विपक्षी दलों की इस 'भूमिका' और 'कहानी' को गलत साबित करने में लग गई. पिछले तीन चुनावों के दौरान प्राप्त जनाधार को बरकरार रखने के मद्देनज़र भाजपा ने एक बार फिर 'मुजफ्फरनगर मॉडल' और 'कैराना पलायन' जैसे मुद्दे को जोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया. यह भाजपा की ऐसी रणनीति थी जिसने किसान आंदोलन के नाम पर एक हुए जाट और मुस्लिमों को दोबारा से राजनीति से परे मूल स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया.
भाजपा के लिए थी खतरे की घंटी
किसान आंदोलन के बाद पश्चिम में जाट और मुस्लिम वोटरों का एक साथ आना भाजपा के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं था. हालांकि विपक्ष की इस थ्योरी में कोई खास दम नहीं था फिर भी ऐसे किसी सामाजिक गठबंधन को होने से रोकने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डेरा डाल दिया. गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और स्वयं योगी सहित पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता काफी हद तक पिछली सपा सरकार के दौरान कानून और व्यवस्था की दयनीय हालात के मुद्दों को उठाते और भाजपा के पारंपरिक वोटरों को बचाने की जुगत में जुटते नजर आए. मुजफ्फरनगर दंगों के बारे में लोगों को बार-बार याद दिलाना, उनके भाषणों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया. बीजेपी के स्टार प्रचारकों ने दंगा व पलायन के अलावा सपा सरकार में उत्पीड़न और गुंडई जैसे आरोपों को लगाकर भी जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश की. भाजपा लगातार हिंदू वोटरों के अपने ध्रुवीकरण अभियान में लगी रही. हालांकि एसपी-आरएलडी गठबंधन के नेताओं ने विकास, रोजगार, भाईचारा, किसान के मुद्दों को उठाया और ध्रुवीकरण की धार को कम करने की पुरजोर कोशिश की. वैसे एसपी-आरएलडी गठबंधन के पास पहले चरण में खोने को बहुत ज्यादा नहीं था और पाने के लिए सब कुछ था. वहीं बीजेपी के सामने अपनी 2017 की जमीन को बचाकर रखने की चुनौती रही.
सपा ने भी किया पलटवार
किसान आंदोलन के बाद मुस्लिम जाट का एक साथ आना और इस पर भाजपा का ध्रुवीकरण अभियान शुरू करना विपक्षी दलों सपा-रालोद के कान खड़े कर गया. खासकर कैराना और मुजफ्फरनगर दंगे की बात उठाकर भाजपा ने बड़ी ही सफाई से जाट-मुस्लिमों के बीच पट रही खाई को दोबारा से पहले से भी अधिक गहरा कर दिया. इसे लेकर सपा और रालोद ने भी नए सिरे से जाट-मुस्लिम समुदाय को एकजुट बनाए रखने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया. इसके लिए गठबंधन ने 'भाईचारा बनाम भाजपा' का नारा गढ़ा.
किसान आंदोलन के साथ विपक्ष ने शुरू की गन्ना राजनीति
विधानसभा चुनाव 2022 के दौरान विपक्षी दलों सपा, रालोद ने तीन कृषि कानून के साथ ही लखीमपुर खीरी के मुद्दे को भी प्रमुखता से उठाया. पर किसानों से केवल इन दो मुद्दों के बल पर पूरा समर्थन पाने को लेकर गठबंधन को उतना यकीन नहीं था. इसका एक कारण यह भी था कि तीन कृषि कानूनों को भाजपा सरकार वापस ले चुकी थी. वहीं, लखीमपुर खीरी मामले में किसानों की योजनाबद्ध हत्या की कहानी आम किसान पचा नहीं पा रहे थे.