हैदराबाद:उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अभियान आक्रामक हो गया है. चौथे फेज तक के उम्मीदवारों की घोषणा के साथ, राजनीतिक दलों को भी एहसास हो जाता है कि वे कहां खड़े हैं. दावों और प्रति-दावों के बावजूद, लखनऊ में पार्टियों के मुख्यालय तक पहुंचने वाली जमीनी स्तर की प्रतिक्रिया ने उनके नेताओं को एहसास करा दिया है कि अगले कुछ दिनों में हवा किस दिशा में बहेगी या बह सकती है. 403 सदस्यीय विधानसभा के लिए मतदान 10 फरवरी से शुरू होगा और सात चरणों में अर्थात 7 मार्च तक चलेगा. मतगणना 10 मार्च को है और दोपहर बाद तक तस्वीर बिलकुल साफ हो जाएगी.
कम से कम दो दावेदारों - मौजूदा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और पिछली विजेता समाजवादी पार्टी (सपा) के लिए प्रचार की गति काफी उन्मादी हो गई है क्योंकि उनके नेताओं के बयान काफी धारदार हो गए हैं, उद्देश्य यह है कि जमीनी स्तर पर कार्य कर रहे समर्थकों को यह संदेश देना कि किसी से भयभीत नहीं होना है. अन्य प्रतिभागी, जैसे बहुजन समाज पार्टी (बसपा), कांग्रेस और भागीदारी परिवर्तन मोर्चा (बीपीएम) जिसमें एआईएमआईएम (AIMIM) और अन्य दल शामिल हैं, भी आक्रामक रुख अपना रहे हैं क्योंकि उन्होंने महसूस करना शुरू कर दिया है कि चुनाव खुला हो सकता है. हालांकि पूरी कोशिश है कि इसे दो ध्रुवीय किया जाए.
कम से कम 1989 के बाद से किसी भी राजनीतिक दल को सत्ता दोबारा नहीं मिलने के चुनावी इतिहास को देखते हुए, एक संक्षिप्त अंतराल के बाद जाति विभाजन के फिर से उभरने के बाद, राज्य आगे एक और दिलचस्प लड़ाई देखने के लिए तैयार है. नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से उत्साहित बीजेपी लोकसभा चुनाव 2014, विधानसभा चुनाव 2017 और लोकसभा चुनाव 2019 में भी हिंदू वोट बैंक को ध्रुवीकरण कर सभी वर्गों का समर्थन हासिल करने में कामयाब रही थी. हालांकि, इसका मतलब यह भी था कि किसी विशेष जाति को कोई तरजीह नहीं दी गई थी, जैसा कि पिछले शासनों में आमतौर पर अपेक्षा की जाती थी. नतीजातन किसी भी जाति (या जाति) को नहीं लगा कि यह उनकी सरकार है.
ओबीसी पुन: दावा
सामूहिक प्रभाव ने अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) और अधिकांश पिछड़ी जातियों (MBC) को सत्ता के केंद्र में लाने की जद्दोजहद में हैं. हालांकि ओबीसी समर्थन को बनाए रखने के लिए भाजपा के प्रयास जमीन पर पर्याप्त नहीं साबित हो रहा है. पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से बीजेपी के मंत्रियों और ओबीसी और एमबीसी के विधायकों ने पार्टी छोड़ी, उससे बीजेपी से मोहभंग वाली बात स्पष्ट होता प्रतीत हो रहा है. वहीं, अधिकांश ने भाजपा से मोहभंग के लिए एक समान कारण बताया. अगर सभी के बयानों या पत्रों का गहन विश्लेषण किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि एक ही स्थान पर एक व्यक्ति द्वारा लिखी गई है.
हालांकि यह तर्क दिया जा रहा है कि दलबदल उनकी जीत के बारे में नेताओं की बेचैनी को भी दर्शाता है, लेकिन इससे यह संदेश गया कि भाजपा अपने झुंड को एक साथ रखने में नाकामयाब रही है. इसके साथ ही कुछ जातियों और समुदायों के महत्व के बारे में नए सवाल भी खडे किए हैं: क्या यादव, मुस्लिम, ब्राह्मण और दलित अन्य ओबीसी और एमबीसी की तरह महत्वपूर्ण नहीं हैं?