लखनऊ : उत्तर प्रदेश में वामपंथी विचारधारा का एक दौर था. आजादी से पहले और उसके बाद करीब 3 दशक तक इनका राजनीति में असर रहा है. वामपंथी छात्रों, किसानों और मजदूरों की बात किया करते थे. लेकिन अचानक यह विलुप्त से हो गए. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 (UP Assembly Election 2022) को लेकर एक बार फिर इस विचारधारा को लेकर हलचल शुरू हुई है. ETV BHARAT से खास बातचीत करते हुए वामपंथी विचारक, सामाजिक चिंतक और शिक्षाविद् प्रो. रमेश दीक्षित का कहना है कि उत्तर प्रदेश में वामपंथी विचारधारा करीब 30 साल से सत्ता से दूर है. थोड़ी-थोड़ी गलतियों ने इसे पीछे धकेल दिया है.
लखनऊ में रखी गई थी छात्र संगठन की नींव
लखनऊ विश्वविद्यालय से लेकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेवाएं दे चुके प्रो. रमेश दीक्षित बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में वामपंथी आंदोलन का एक दौर था. 1925 में कम्प्युनिट पार्टी की स्थापना कानपुर में औपचारिक रूप से हुई थी. उस समय कांग्रेस के साथ मिलकर वामपंथी आंदोलन काफी सक्रिय रहा. अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बड़े-बड़े आंदोलन चलाए गए. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के औपचारिक रूप से गठन होने से पहले ही अंग्रेजों ने कई सक्रिय कम्युनिस्टों के खिलाफ कानपुर बोल्शेविक षड़यंत्र के अंतर्गत मुकदमा दायर कर दिया था. एमएन राय, एसए डांगे सहित कई कम्युनिस्टों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए. 1929 को भाकपा से जुड़े बहुत से महत्त्वपूर्ण नेताओं को मेरठ षड़यंत्र केस में गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने बताया कि लखनऊ में 1935 में हुए एक सम्मेलन के दौरान ही छात्र संगठन की शुरुआत की गई. जिसमें, लखनऊ विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय समेत कई जगहों के युवा जुड़े.
1970 के आसापास शुरू हुई गिरावट
प्रो. रमेश दीक्षित बताते हैं कि आजादी के बाद भी वामपंथी आंदोलन अपने उफान पर रहा. छात्र, मजदूर और किसान की बात की जाती थी, लेकिन बाद के वर्षों में इसमें गुटबाजी शुरू हुई. भारत के तीसरे आम चुनावों में भाकपा को 29 सीटों पर जीत मिली. भाकपा अब भी संसद में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. 1964 में भाकपा का विभाजन हो गया और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का उभार हुआ. कई बड़े नेता बंट गए. 1970-77 के दौर में कांग्रेस से गठजोड़ होने के कारण भाकपा ने कांग्रेस और आपातकाल का समर्थन किया. इससे मतभेद और भी बढ़ गया.