जमशेदपुरःअपनी अनोखी परंपरा और आदिवासी संस्कृति के लिए झारखंड की देश में अलग पहचान है. यह आदिवासी समाज अपनी परंपराओं के लिए सजग भी है इसलिए प्रकृति से करीबी और उसकी पूजा कर जीवन के लिए उसका धन्यवाद देने का कोई मौका नहीं छोड़ते. इन्हीं परंपराओं में से एक है सोहराय की गोट पूजा (Sohrai Got Puja), जिसे आदिवासी अनोखे अंदाज में मनाते हैं.
जमशेदपुर के ग्रामीण क्षेत्र में आदिवासी संथाल समाज कार्तिक मास में सोहराय फेस्टिवल को लेकर विशेष तैयारी करता है. घरों को आकर्षक रंगों से सजाया संवारा जाता है और इस दौरान पशुओं के साथ कई तरह के आयोजन भी किए जाते हैं, जिसमे ग्रामीण बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.
आदिवासी समाज की रवायत
सोहराय फेस्टिवल की पूर्वी सिंहभूमि में बहुत पुरानी परंपरा है. साल भर खेती में पशुओं के काम करने के बाद सोहराय के मौके पर पशुओं की थकान दूर करने के लिए सोहराय (Sohrai Got Puja) में आराम दिया जाता है. इसी परंपरा को अनोखे अंदाज में मनाने की रवायत यहां के आदिवासी समाज में है.
यह है सोहराय पूजा
संथाल समाज द्वारा सोहराय के दौरान एक विशेष पूजा भी की जाती है, जिसे गोट पूजा कहते हैं. इसमें मारंग बुरु, जाहेर आयो और अन्य आराध्य की पूजा की जाती है. एक अंडे की पूजा की जाती है. पूजा के बाद किसानों के पशु को अंडे के पास छोड़ा जाता है, इस दौरान जिस पशु के पैर से अंडा टूट जाता है या छू जाता है उस पशु को शुभ मानते हैं. इस पूजा के जरिये हम अच्छी फसल की कामना करते हैं. मुर्गा की बलि चढ़ाते हैं जिसे खिचड़ी में प्रसाद के रूप में खाया जाता है.
ग्रामीण नायके लक्ष्मण सोरेन बताते हैं कि यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. इस परंपरा के अनुसार ग्रामीण अपने गांव के पंडित जिसे नायके कहा जाता है, उनको आवभगत के साथ गांव के एक मैदान में लेकर आते हैं, जहां गांव के ग्राम प्रधान, किसान और अन्य ग्रामीण मौजूद रहते हैं. यहीं नायके द्वारा मैदान में विशेष पूजा की जाती है. इस पूजा जिसे गोट पूजा में गांव में रहने वाले पशु मालिकों द्वारा एक-एक मुर्गा पूजा के लिए चढ़ाया जाता है. गांव के नायके यानी पंडित पूजा कर उसकी बलि देते हैं. पूजा वाले स्थान पर एक अंडा भी रखा रहता है.
करनडीह में गोट पूजा
सोहराय में गोट पूजा का आयोजन अलग-अलग क्षेत्र में स्थित बड़े मैदान में किया जाता है. जमशेदपुर के करनडीह कॉलेज मैदान में शुक्रवार को गोट पूजा हुई. इस दौरान ग्रामीण अपनी भाषा में सोहराय के गीत गाकर खुशी मनाते दिखे. वहीं मैदान में अलग-अलग खेमों में ग्रामीणों की ओर से खिचड़ी बनाया गया, जिसमें जिस मुर्गे की बलि दी जाती है उसे भी मिलाया गया. आदिवासियों की पुरानी परंपरा के अनुसार लकड़ी के चूल्हे पर खिचड़ी पकाई गई. ग्रामीणों ने इस दौरान हड़िया का सेवन भी किया.
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