हैदराबाद :विकासशील देशों में रह रही महिलाओं में सिर्फ 50 प्रतिशत का अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार है. 57 देशों में रह रहीं 50 प्रतिशत महिलाओं के पास अपने शरीर से जुड़े निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई है. इसमें यौन संबंध, गर्भनिरोधक और स्वास्थ्य से जुड़े निर्णय शामिल हैं. इसके अलावा उन्हें दुष्कर्म, जबरन नसबंदी और जननांग विकृति जैसी सामाजिक विकृतियों का समना करना पड़ता है.
'The My Body is My Own' अध्ययन में बलात्कार, जबरन नसबंदी, कौमार्य परीक्षण और जननांग विकृति सहित महिलाओं के खिलाफ प्रचिलित कुप्रथाओं को सूचिबद्ध किया गया है.
संयुक्त राष्ट्र की यूएनएफपीए की प्रमुख नतालिया कनेम ने कहा कि लाखों महिलाओं और लड़कियों का अपने ही शरीर पर पूर्ण अधिकार नहीं होता है. उनका जीवन दूसरों द्वारा नियंत्रित होता है. निर्णय लेने वालों में पति, परिवार के सदस्य, समाज और सरकार शामिल हो सकते हैं.
उन्होंने कहा कि यह लड़कियों और महिलाओं के मौलिक मानव अधिकारों के खिलाफ है. इस तरह की कुप्रथाएं लैंगिक भेदभाव और हिंसा को बढ़ावा देती हैं. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कैसे इन अधिकारों का हनन जीवन के अन्य आयामों में महिलाओं की प्रगति को बाधित करते हैं. इनमें स्वास्थ्य, आय और शिक्षा शामिल हैं.
नहीं मिलती हर बलात्कारी को सजा
कनेम ने कहा कि इस सब के लिए समाजिक समस्याएं, जैसे यौन संबंधों को लेकर निषेध (खासकर महिलाओं के लिए), यहां तक की उसपर बात करने की अनुमति भी न होना और पितृसत्ता हावी होना जिम्मेदार हैं. इससे पुरुष को बल मिलता है और महिलाएं अपने अधिकार से वंछित रह जाती हैं.
महिलाओं के शरीर पर उनके अधिकारों का उल्लंघन करने वाले अपराध और प्रथाओं में झूठी शान का खतिर हत्याएं, जबरन व जल्दी शादी करवाना और जननांग विकृति और जबरन गर्भधारण या गर्भपात शामिल हैं.
बलात्कार जैसे कृत्यों को अपराध माना जाता है, हालांकि यह जरूरी नहीं है कि हर मामले में अपराधी को सजा मिलती हो. वहीं अन्य कृत्यों को समाज और कानून से संरक्षण प्राप्त है. रिपोर्ट में कहा गया है कि कई देशों में लैंगिक समानता की संवैधानिक गारंटी के बावजूद, दुनिया भर में महिलाओं को पुरुषों के कानूनी अधिकारों का केवल 75% हिस्सा ही प्राप्त है.
कोविड-19 और महिलाओं की स्थिति
कोरोना वायरस से फैली महामारी ने महिलाओं की स्थिति को खराब कर दिया है. कनेम ने कहा कि हालात बद से बदतर हो गए हैं. इसके परिणामस्वरूप यौन हिंसा में वृद्धि हुई है, अधिक अनपेक्षित गर्भधारण, स्वास्थ्य के लिए नई बाधाएं खड़ी हुई है और नौकरी व शिक्षा को नुकसान पहुंचा है. विश्वव्यापी लॉकडाउन के चलते घरेलू हिंसा में 20% की वृद्धि हुई है. इस महामारी ने कुप्रथाओं को खत्म करने के प्रयासों को भी बाधित किया है, जिसके चलते आने वाले दशक में 13 मिलियन बाल विवाह और महिला जननांग विकृति के 2 मिलियन अन्य मामले हो सकते हैं.
संस्कृति या स्थान कारण नहीं
दुनिया के किसी भी देश ने शत प्रतिशत लैंगिक समानता हासिल नहीं की है, लेकिन स्वीडन, उरुग्वे, कंबोडिया, फिनलैंड और नीदरलैंड का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन रहा है. विविधता दर्शाती है कि समानता हासिल में संस्कृति या स्थान बाधा नहीं है.
कनेम ने इस बात पर जोर दिया कि मानवाधिकार संधियों के तहत दायित्वों को पूरा करने के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक, संस्थागत और आर्थिक संरचनाओं में परिवर्तन करना सरकारों की मुख्य भूमिका है.
चौंकाने वाले तथ्य
रिपोर्ट में बताया गया है कि न केवल महिलाओं और लड़कियों, बल्कि पुरुषों और लड़कों की शारीरिक स्वायत्तता का उल्लंघन किया जाता है. इसे दिव्यांगता जैसे हालात और बिगाड़ते हैं. उदाहरण के लिए, दिव्यांग लड़कियों और लड़कों के यौन हिंसा के शिकार होने की संभावना लगभग तीन गुना अधिक होती है, लेकिन सबसे बड़ा जोखिम लड़कियों के साथ होता है.