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पाक की मदद से काबुल हवाईअड्डे पर प्रभुत्व हासिल करेगा तुर्की, मुश्किल में भारत

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Published : Jun 23, 2021, 4:21 PM IST

अफगानिस्तान में एक नई तुर्की-पाकिस्तान धुरी उभर रही है, जो भारत के लिए बहुत नुकसानदेह है. पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट.

डिजाइन फोटो
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नई दिल्ली :अमेरिका और तुर्की (US and Turkey) के बीच खराब संबंधों में सुधार के संकेतों के बीच दोनों देशों के शीर्ष अधिकारियों के गुरुवार (24 जून) को मिलने की संभावना है. इस दौरान अमेरिकी सेना के हटने के बाद तुर्की द्वारा रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण काबुल के हामिद करजई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे (Hamid Karzai International Airport) के संभावित संचालन पर चर्चा की जा सकती है. 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान से वापस चली जाएगी.

बता दें कि काबुल हवाई अड्डे (Kabul airport ) कई मायनों में महत्वपूर्ण है. यह लैंडलॉक अफगानिस्तान (landlocked Afghanistan) में मनुष्य और उपकरणों और अन्य कार्गो के लिए मुख्य आपूर्ति बिंदु है.

आसपास के इलाकों से काबुल के लिए सड़क संपर्क कमजोर है, इसलिए तालिबान (Taliban ) अफगान सरकार (Afghan government) के खिलाफ अपने नवीनतम हमलों से आसपास के प्रांतों में प्रभुत्व हासिल कर रहा है.

अफगानिस्तान में तैनात तुर्की सेना

अफगानिस्तान में 2001 में शुरू हुए अमेरिका के नेतृत्व वाले 36 देशों के नाटो 'रेसोल्यूट सपोर्ट' मिशन के तहत गैर-लड़ाकू कर्तव्यों (non-combat duties) के हिस्से के रूप में लगभग 500 तुर्की सैनिकों (Turkish soldiers) पहले से ही काबुल हवाई अड्डे पर तैनात हैं.

तुर्की ने अफगान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत को सुविधाजनक बनाने की पेशकश की है,जो दो चीजों का संकेत हैं.

स्थिति मजबूत करना चाहता है तुर्की

पहला संकेत यह है कि तुर्की रूस से शक्तिशाली S-400 वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली (S-400 air defence missile system) खरीदने के लिए अमेरिका के साथ तालमेल बिठाकर एक प्रमुख नाटो सहयोगी (NATO ally ) के रूप में अपनी स्थिति को मजबूत करना चाहता है.

राष्ट्रपति बाइडेन (President Biden) कुछ मुद्दों को लेकर आलोचनात्मक रहे हैं. यदि तुर्की, वर्तमान तुर्की शासन की अनिवार्यता को रेखांकित करने के साथ, काबुल हवाई अड्डे को अच्छी तरह से संचालित करने का प्रबंधन करता है, तो नाटो के भीतर इसकी अच्छी स्थिति बन जाएगी.

पाकिस्तान से मांगा समर्थन

दूसरा यह है कि पारंपरिक नेता सऊदी अरब के अमेरिका के करीब जाने के बाद मुस्लिम दुनिया (Muslim world ) में अपनी प्रमुखता हासिल करने के लिए उत्सुक है, जिससे हाउस ऑफ सऊद (House of Saud) की 'मिल्लत-ए-इस्लामिया' का नेतृत्व करने की स्वीकार्यता में गिरावट आई है. तुर्की ने लीबिया में सफल सैन्य-राजनयिक हस्तक्षेपों (military-diplomatic interventions) और नागोर्नो-कराबाख (Nagorno-Karabakh ) क्षेत्र पर हाल ही में अजरबैजान-आर्मेनिया संघर्ष (Azerbaijan-Armenia conflict) पर सवार होकर अफगानिस्तान में सत्ता के खेल में कदम रखा है. इस बीच हालिया घटनाक्रम में दिलचस्प बात यह है कि तुर्की ने हंगरी के अलावा पाकिस्तान से समर्थन और सक्रिय सहयोग मांगा है.

पिछले हफ्ते तुर्की के राष्ट्रपति (Turkey President) रेसेप तईप एर्दोगन (Recep Tayyip Erdogan) ने नाटो शिखर सम्मेलन (NATO summit) में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से मिलने के बाद कहा, 'मैंने (बाइडेन) पाकिस्तान और हंगरी के साथ सहयोग करने के अपने विचार के बारे में बताया. वर्तमान में एक आम सहमति बनी है. इसमें कोई समस्या नहीं है.

पाकिस्तान को अपने पक्ष में रखने की तुर्की की उत्सुकता इस समझ को इंगित करती है कि तालिबान और इस्लामी लड़ाकों (Taliban and the Islamist fighters) के प्रभाव के कारण पाकिस्तान के समर्थन के बिना अफगानिस्तान में किसी भी आदेश की कोई भी समानता संभव नहीं होगी.

भारत को हो सकता है नुकसान

पाकिस्तान के लिए भी अफगानिस्तान में तुर्की की प्रमुखता उच्च तालिका में पाकिस्तान का स्थान सुनिश्चित करेगी, लेकिन कई कारणों से भारत पर इसके प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं.

पहला यह कि भारत ने कभी भी तुर्की के साथ घनिष्ठ संबंधों को पोषित नहीं किया था. इसलिए पाकिस्तान के समर्थन से काबुल में तुर्की की प्रमुखता भारत को नुकसान पहुंचा सकती है.

इसके अलावा कश्मीर पर तुर्की का रुख भारत के लिए नुकसानदेह है. 14 फरवरी, 2020 को राष्ट्रपति एर्दोगन ने पाकिस्तान की नेशनल असेंबली (Pakistan's National Assembly) और सीनेट में संयुक्त संसद की बैठक में बात की, जहां तुर्की ने पाकिस्तान को अटूट समर्थन किया.

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उन्होंने अपने संबोधन में कहा, 'आज कश्मीर का मुद्दा हमारे जितना करीब है, उतना ही आपके (पाकिस्तानियों) ... कोई भी दूरी दिलों के बीच दीवार नहीं बना सकती.'

इन घटनाओं ने अफगानिस्तान में पैर जमाने के भारत के प्रयास को और भी कठिन बना दिया है.

आतंकवाद विरोधी और संघर्ष समाधान की मध्यस्थता ( counterterrorism and mediation) के लिए कतर के विशेष दूत मुतलक बिन माजिद अल कहतानी (Mutlaq bin Majed Al Qahtani) के अनुसार भारतीय अधिकारियों ने हाल ही में कतर में तालिबान प्रतिनिधियों (Taliban representatives ) से गुपचुप तरीके से मुलाकात की है. अभी तक भारत काबुल में केवल अफगान सरकार को मान्यता देता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि काबुल में एक मजबूत तुर्की-पाकिस्तान धुरी भारत के लिए एक झटका होगा.

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