चेन्नईःतमिलनाडु के पुडुकोट्टई जिले के गंदरवाकोट्टई तालुक के थाचनकुरिची में रविवार से सीजन का पहला जल्लीकट्टू उत्सव शुरू (Jallikattu festival begins) हो चुका है. पहले दिन उत्सव को देखने और इसमें भाग लेने के लिए हजारों लोग जमा हुए, जबकि सांडों को वश में करने की कोशिश में 74 लोग घायल हो गए. थाचनकुरिची गांव में मिनी माल वाहकों में सैकड़ों सांड लाए गए थे. जबकि कार्यक्रम स्थल पर उमड़ी भीड़ को काबू करने के लिए भारी पुलिस बल मौजूद था. यह महोत्सव 6 जनवरी को होना था, लेकिन सुरक्षा कारणों के चलते इसे दो दिन बाद 8 जनवरी से शुरू किया गया.
उत्सव के दौरान एक के बाद एक 485 सांडों को खेत में छोड़ा गया. चारों तरफ से बंद खेत में टैमरों (जानवरों का शिक्षक) ने उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश की. महोत्सव शुरू होने से पहले टूर्नामेंट में भाग लेने वाले टैमर्स को अपनी कोविड की निगेटिव आरटी-पीसीआर रिपोर्ट पेश करना जरूरी थी. सांडों का भी डोप टेस्ट किया गया. उसके बाद ही उन्हें मैदान में उतरने की अनुमति दी गई. कार्यक्रम स्थल पर 20 सदस्यीय चिकित्सा दल तैनात किया गया था और घायलों को पास के तंजावुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल ले जाने के लिए 108 एम्बुलेंस वाहन भी तैनात किए गए थे.
तमिलनाडु का सबसे बड़ा खेल
सांडों को काबू में करने की प्रतियोगिता 'जल्लीकट्टू' तमिलनाडु के गांवों में सबसे बड़ा परंपरागत खेल है. यह फसल के मौसम के बाद आयोजित किया जाता है. जल्लीकट्टू को तमिलनाडु का पारंपरिक त्योहार भी कहा जाता है. इसमें मैदान में वीरता का प्रदर्शन करना होता है. प्रतियोगिता में सांड को काबू करने वाले को बड़े पुरस्कार दिए जाते हैं. हालांकि, इसमें दुर्घटनाएं भी होती हैं. सांड को काबू करने के दौरान कई लोग घायल भी होते हैं.
जल्लीकट्टू का इतिहास
यह खेल करीब 2 हजार साल पुराना माना जाता है. प्राचीन काल में महिलाएं अपने पति को चुनने के लिए जल्लीकट्टू खेल का सहारा लेती थीं. यह ऐसी परंपरा थी, जो योद्धाओं के बीच काफी लोकप्रिय थी. जो योद्धा सांडों को काबू में कर लेता था, उनको महिलाएं पति के रूप में चुनती थीं. जलीकट्टू को पहले सल्लीकासू कहते थे. बाद में इसका नाम बदल दिया गया. जो व्यक्ति लंबे समय तक सांड को काबू में रख लेता है. साथ ही सांड के सिंगों पर फसाए पैसे या फिर सिक्कों को सांड के सींग से निकाल लेता उसको इस खेल का विजेता माना जाता है. उसे सिकंदर की उपाधी दी जाती है.