हैदराबाद : अरुणा आसफ अली, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख महिला हस्तियों में से एक, क्रांतिकारी वामपंथी थीं. उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान नेतृत्व संभाला था. 8 अगस्त 1942 में कांग्रेस ने भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया और महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू सहित इसके सभी प्रमुख नेताओं को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था.
गांधी के "करो या मरो" के आह्वान पर उन्होंने 9 अगस्त 1942 को बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान (अब आजाद मैदान) में तिरंगा फहराकर अंग्रेजों को ललकारा था. इस आंदोलन को उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन की सबसे स्थाई छवियों में से एक बना दिया था. इस आंदोलन में वह गिरफ्तारी से बच निकली थी और कई सालों तक अंडरग्राउंड रही.
भारत की स्वतंत्रता के बाद, वह सार्वजनिक कार्यों में सक्रिय रही, और 1958 में दिल्ली की पहली महिला मेयर चुनी गईं. उन्होंने नई दिल्ली में वामपंथी झुकाव वाले देशभक्त समाचार पत्र और साप्ताहिक पत्रिका 'लिंक' का प्रकाशन करने लगीं. 29 जुलाई 1996 को अरुणा आसफ अली का निधन हुआ.
बचपन और प्रारंभिक जीवन
अरुणा आसफ अली का नाम अरुणा गांगुली था. उनका जन्म एक रूढ़िवादी बंगाली ब्राह्मण परिवार में उपेंद्रनाथ गांगुली और अंबालिका देवी के घर 16 जुलाई, 1909 को कालका, पंजाब में हुआ था. स्वतंत्र रूप से पली-बढ़ी अरुणा परिवार की सबसे बड़ी संतान थीं. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर के सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट से प्राप्त की. स्कूल में ही वह कैथोलिक धर्म के प्रति इतनी आकर्षित हुई कि उसने रोमन नन बनने का फैसला किया. उसी से नाराज होकर, उसके परिवार ने उसे नैनीताल के एक प्रोटेस्टेंट स्कूल में स्थानांतरित कर दिया.
स्वतंत्रता की लड़ाई में उनका योगदान
एक उदार, उच्च जाति के बंगाली परिवार में पली-बढ़ी, जो ब्रह्म समाज का हिस्सा थी और रवींद्रनाथ टैगोर से प्रेरित अरुणा गांगुली अत्यंत शिक्षित थीं. उन्होंने कांग्रेस के एक सदस्य आसफ अली से शादी की, जो भगत सिंह का बचाव करने के लिए जाने जाते हैं. आसफ अली बाद में कड़े विरोध के बावजूद संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत बने थे. आसफ अरुणा से 23 वर्ष बड़े थे और 1953 में उनकी मृत्यु हो गई थी. आसफ अली के जरिये ही अरुणा भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई से जुड़ी और कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गईं.
वह 1931 में गिरफ्तार हुई थी, और उनकी रिहाई तभी हुई जब महात्मा गांधी ने सार्वजनिक विरोध के बाद हस्तक्षेप किया. यहां तक कि जब तक अरुणा रिहा नहीं हुई थीं, तब तक अन्य महिला कैदियों ने भी रिहा होने से इनकार कर दिया था.
1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और तिहाड़ जेल में रखा गया, जहां उन्होंने अन्य राजनीतिक कैदियों के इलाज के समर्थन में भूख हड़ताल की थी. इसके बाद उन्हें अंबाला में एकांत कारावास में ले जाया गया था. वह रिहा होने के 10 साल तक राजनीतिक रूप से निष्क्रिय थी, जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू नहीं हुआ था.