मसूरी : मसूरी शहर कब बसा और क्या है इसके पीछे का इतिहास. अगर आप इसके इतिहास को खंगालेंगे तो पाएंगे कि 1815 में गोरखा युद्ध के अंत के समय इसकी शुरुआत होती है. कैप्टन यंग (आइरिश मैन) नाम के एक कमांडर ने पहली सिरमुर बटालियन की कमान संभाली थी. उन्होंने हिल स्टेशन की दूसरी छोर पर लैंडॉर में एक शूटिंग लॉज बनाया था. इसका नाम मंसूर झाड़ी कोरियनका नेपालेंसिस के नाम पर रखा गया.
1834 की शुरुआत में जॉन मैकिनन (स्कॉटिश सेवानिवृत्त सेना स्कूल मास्टर) ने अपने निजी स्कूल को मेरठ से हिल स्टेशन पर स्थानांतरित किया. मसूरी सेमिनरी यहां का पहला अंग्रेजी माध्यम स्कूल था. बेशक अन्य शैक्षणिक संस्थान बाद में सामने आए और बाद में इस जगह की पहचान ही बदल गई. इसे शिक्षा के एक विशाल केंद्र के रूप में पहचान मिली. इसे 'भारत का एडिनबर्ग' कहा जाने लगा.
1849 में, मैकिनॉन ने यहां पर शराब की भठ्ठी शुरू की थी. बाद में 26 एकड़ का ग्रांट लॉज मैडॉक स्कूल बन गया, जब क्राइस्ट चर्च के पादरी ने अपने भाई को इसे चलाने के लिए इंग्लैंड से आमंत्रित किया था. हालांकि, 1866 तक, इसकी स्थिति खराब हो गई. इसे 12000-पाउंड में चर्च ऑफ इंग्लैंड को बेच दिया गया. तीन साल बाद रेव आर्थर स्टोक्स के नेतृत्व में इसने स्टोक्स स्कूल के रूप में ख्याति प्राप्त की. शुरुआती दिनों में, यहां से पढ़ाई कर निकलने वाले लड़कों को सिविल सेवा, पुलिस, सर्वेक्षण और अन्य जगहों पर नौकरी मिल जाती थी. अन्य छात्रों को रूड़की में सिविल इंजीनियरिंग के थॉमसन कॉलेज में प्रवेश मिलता था.
सर विलियम विलकॉक्स यहीं से पास हुए. उन्होंने असवान बांध का निर्माण किया. सीएम ग्रेगरी, जिन्होंने भारत के कई शुरुआती और सबसे बड़े रेलवे पुलों का निर्माण किया. कॉर्बेट परिवारों के लड़के यहीं से पास हुए थे. इसका असर ये हुआ कि कलकत्ता और लखनऊ में स्थापित स्कूलों ने सीनियर स्कूल विंग पर ध्यान देना कम कर दिया. इसकी जगह उन्होंने प्राइमरी विंग पर फोकस किया. स्कूलों के लिए इसका संदेश बहुत ही साफ था.
अब तक यह भी स्पष्ट हो गया कि अब यहां पर लग्जरी होटल की जरूरत है. लखनऊ के बैरिस्टर सेसिल डी लिंकन ने 1885 में मैडोक स्कूल का ग्राउंड खरीदा. उन्होंने पांच सालों में यहां पर एक बड़ा भवन बनाने का फैसला किया. उन्होंने इसका नाम फ्रांस में तेरहवीं शताब्दी के 'सेवॉय' के फेयरेस्ट मनोर के नाम पर रखा.
एक जमाने में दिन में भी यहां पहुंचने का एकमात्र रास्ता राजपुर से ब्राइडल पाथ ही था. आदमी हो और सामान, घोड़े पर लदकर आते थे. महिलाओं और बच्चों को 'झाम्पनी' पर लाया जाता था. पहाड़ी पर यात्रा के लिए इसकी मदद ली जाती है. जाहिर है, जो चल सकते थे, वे झरीपानी और बरलोगंज होते हुए राजपुर से सात मील की दूरी तय करते थे. होटल के लिए जो भी जरूर आइटम थे, उन्होंने वहां पर लाया, जैसे- विशाल विक्टोरियन या एडवर्डियन फर्नीचर, भव्य पियानो, बिलियर्ड-टेबल, बियर के रॉटंड बैरल और शैंपेन के बक्से वगैरह. इसके बाद यह सिंगापुर के रैफल्स, जापान के इंपीरियल या हांगकांग प्रायद्वीप की तरह पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में प्रसिद्ध हो गया.
एक स्थानीय लेखक ने टिप्पणी की, 'द सेवॉय' मसूरी स्कूल की विरासत पर चमक उठा. मार्च 1906 में, होटल 'हर रॉयल हाईनेस' वेल्स की राजकुमारी (बाद में क्वीन मैरी) की शाही यात्रा के स्वागत के लिए तैयार था. वह सेवॉय के मैदान में एक पार्टी में शामिल हुई थीं. सामने तीन सौ साल से अधिक पुराने दो देवदारों के पेड़ों से प्रभावित होकर, उन्होंने होटल के सामने क्राइस्ट चर्च में एक पेड़ भी लगाया.