हैदराबाद :देश के अलग-अलग चिकित्सा केंद्रों में डंप किया गया हेल्थकेयर अपशिष्ट स्वास्थ्य कर्मियों, अपशिष्ट हैंडलर्स और लोगों पर विषाक्त प्रभावों को उजागर करता है. चिकित्सा में प्रयुक्त पट्टियों, सीरिंज, सर्जिकल कपड़ा और अन्य चिकित्सा अपशिष्ट का प्रबंधन अस्पतालों और सरकार के लिए एक चुनौती है.
कोविड-19 के मद्देनजर इस मुद्दे ने बदतर मोड़ ले लिया है. क्योंकि पोस्ट टेस्टिंग, डिस्पोज्ड पीपीई किट, दस्ताने और मास्क हर जगह जमा हो रहे हैं और अस्पताल और चिकित्सा संकायों का ध्यान शायद ही प्रभावी निपटान पर केंद्रित है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार भारत ने 2019 में प्रतिदिन लगभग 616 टन जैव चिकित्सा अपशिष्ट का उत्पादन किया.
एसोचैम और वेलोसिटी सर्वेक्षणों से पता चलता है कि यह संख्या 2022 तक 776 टन तक बढ़ जाएगी. खतरनाक कचरे के इस बड़े ढेर को नजरअंदाज करना खतरनाक साबित होगा. सीपीसीबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्पन्न कचरे की मात्रा की तुलना में अपशिष्ट उपचार और निपटान सुविधाएं कम और दूर हैं. स्थिति की गंभीरता को समझते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अधिकारियों को बायोमेडिकल कचरे के उचित प्रबंधन के लिए उपाय करने का भी निर्देश दिया है.
भारत सरकार ने 2016 में बायो-मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स में संशोधन किया है. वे बताते हैं कि स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और पर्यावरण पर प्रभाव को कम करने के लिए जैव-चिकित्सीय कचरे को वैज्ञानिक रूप से अलगाव, संग्रह और उपचार के माध्यम से निपटाया जाना चाहिए.
बायोमेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट के लिए राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCB) से अनुमोदन की आवश्यकता होती है. बायोमेडिकल कचरे को 46 प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है. मेडिकल कचरे के लिए सभी अस्पतालों में पीले, लाल, सफेद और नीले रंग के कोडेड डिब्बे लगाए जाने चाहिए.