नई दिल्ली :हाल के दो घटनाक्रम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उभर रहे जमीनी राजनीतिक रुझान के संकेत हैं. पहला गृह मंत्री अमित शाह का राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के नेता जयंत चौधरी को 'गलत पार्टी में सही आदमी' के रूप में जिक्र करना और चौधरी को भगवा गठबंधन में शामिल होने की बार-बार पेशकश करना. दूसरा, 'संयुक्त किसान मोर्चा' (57 किसान संगठनों का एक संघ) का भाजपा उम्मीदवारों की हार के लिए प्रचार करने का निर्णय.
पश्चिमी यूपी जहां पहले और दूसरे चरण में क्रमश: 10 और 14 फरवरी को मतदान होना है, का राजनीतिक महत्व ज्यादा है. शायद ही इसे कम करके आंका जा सकता है. 403 सदस्यों की यूपी विधानसभा की 130-विषम सीटों को मिलाकर यह क्षेत्र सत्तारूढ़ भाजपा के लिए काफी मायने रखता है. 2014 के संसदीय चुनावों में भाजपा ने 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की पृष्ठभूमि में चुनाव लड़कर इस क्षेत्र में जीत हासिल की थी. इसके बाद 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनावों में उल्लेखनीय जीत हासिल की. 2017 में भाजपा ने राज्य के पश्चिमी क्षेत्रों में 104 सीटें जीती थीं तो, इस बढ़ती धारणा का आधार क्या हो सकता है कि आगामी चुनावों में इस क्षेत्र में कड़े मुकाबले होंगे?
क्या बदल गया है?
हाल के सप्ताहों की करीब दर्जनभर घटनाएं भाजपा के दृष्टिकोण से पूरी तरह से ठीक नहीं रही हैं. आक्रोशित ग्रामीणों ने भाजपा उम्मीदवारों को खदेड़ तक दिया है. मेरठ जिले के दौराला में ग्रामीणों द्वारा काले झंडे लहराए जाने के बाद पार्टी विधायक संगीत सोम को पीछे हटना पड़ा. पूर्व केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा का भी लगभग यही हश्र हुआ जब वह हाल ही में गौतमबुद्धनगर के एक सुदूर इलाके में दौरे पर गए. सहारनपुर और बुलंदशहर जिलों में ग्रामीणों ने भाजपा उम्मीदवारों के प्रवेश पर रोक लगाने के इरादे से बैनर और पोस्टर तक लगाए हैं. वहीं, इस इलाके में 'जाट' समुदाय के युवा - जो अभी तक भाजपा के कट्टर समर्थक थे, अब दुविधा में हैं. प्रयागराज में रेलवे भर्ती परीक्षाओं में अनियमितता का विरोध कर रहे युवाओं के खिलाफ राज्य पुलिस द्वारा 'लाठीचार्ज' किए जाने के बाद बेरोजगारी का मुद्दा उभर रहा है. इस सबके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि भाजपा की स्थिति कमजोर हो गई है. हां इतना कहा जा सकता है कि पश्चिमी यूपी में राजनीतिक मैदान समान रूप से तैयार हो गया है और भाजपा की 'अजेयता" वाली स्थिति तो नहीं है. अब, कोई भी पार्टी या संगठन जो अधिक चतुराई से अपने पत्ते खोलेगा, उसकी स्थिति बेहतर होगी.
किसानों की हलचल का असर
2014 के बाद से भाजपा ने पश्चिमी यूपी में 'हिंदुत्व' विचारधारा के साथ विकास के मुद्दे को शामिल कर सफलता पाई थी. किसान संगठनों द्वारा तीन कृषि कानूनों के खिलाफ लंबे आंदोलन ने जाहिर तौर पर भगवा पार्टी के सावधानीपूर्वक तैयार किए गए सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले को अस्थिर करने की चुनौती दी है. लेकिन इतना हुआ है कि तीन कानूनों को वापस लेने के बाद, किसान संगठनों और नेताओं के पास अब यूपी में चुनावी परिणाम को प्रभावी ढंग से प्रभावित करने की क्षमता या तेजी नहीं है. चुनावी राज्य में किसानों के मुद्दे राजनीतिक बहस के केंद्र में आ गए हैं. पिछले चुनावों में बीजेपी प्रचार का एजेंडा तय करने में सबसे आगे रही है. लेकिन ऐसा लगता है कि इस बार यह स्थिति बदल गई है. उदाहरण के लिए, समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने 300 यूनिट मुफ्त बिजली की घोषणा की जिसके बाद योगी आदित्यनाथ सरकार की बिजली बिल को आधा करने की प्रतिक्रिया आई. यादव ने कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गारंटी देने का भी वादा किया है और यह भी घोषणा की है कि अगर उनकी सरकार बनी तो किसानों को बिना किसी देरी के बकाया भुगतान देने के लिए एक 'रोलिंग फंड' बनाया जाएगा, ऐसे मामलों में योगी सरकार खामोश है.