नई दिल्ली :वैसे तो हमारे देश में गुरु शिष्य परंपरा काफी पुरानी है. हमारे पौराणिक ग्रंथों व लोक कथाओं में इसके तमाम उदाहरण मिलते हैं. इस शिक्षक दिवस (Teachers Day 2022) को मनाने की परम्परा को प्राचीनकालीन गुरु-शिष्य परम्परा के रूप में देखा जाता है. हम लोग गुरु पूर्णिमा के दिन वैसे भी अपने आध्यात्मिक व धार्मिक गुरु को पूजते हैं. ठीक ऐसे ही शिक्षक दिवस को मनाने की परंपरा है. इस दिन हमारे पास मौका होता है कि हम अपने स्कूल-कॉलेज और अन्य स्थानों पर शिक्षा प्रदान करने वाले अध्यापकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें.
शिक्षक दिवस का इतिहास (History Of Teachers Day)
हमारे देश में शिक्षक दिवस मनाने परंपरा तब शुरू हुयी जब साल 1962 में डॉ. राधाकृष्णन के राष्ट्रपति बने. देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के बाद अपने गुरु के जन्मदिन को उनके छात्र धूमधाम से मनाना चाहते थे. सबकी मंशा थी कि इस दिन को राधाकृष्णन दिवस के रुप में मनाया जाय. जब छात्रों ने उनका जन्मदिन मनाने की स्वीकृति मांगी तो इस पर राधाकृष्णन ने कहा कि मेरा जन्मदिन मनाने के बजाय अगर इस दिन को देशभर के शिक्षकों के सम्मान में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाय तो तो मुझे इस बात पर अधिक गर्व होगा. इस तरह देशभर में पहली बार 5 सितंबर 1962 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन के अवसर पर शिक्षक दिवस मनाने की शुरुआत हुई.
शिक्षक दिवस 2022 (कांसेप्ट फोटो) शिक्षक से राष्ट्रपति तक का सफर (Sarvepalli Radhakrishnan Profile)
डॉ. राधाकृष्णन का जन्म साल 5 सितंबर 1888 में तमिलनाडु के तिरुतनी गांव में एक गरीब परिवार में हुआ था. वे बचपन से ही पढ़ाई में काफी तेज थे. उन्होंने फिलोसोफी में एम.ए किया और 1916 में मद्रास रेजिडेंसी कॉलेज में फिलॉसफी के असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में पढ़ाना शुरू किया. कुछ साल बाद ही वे प्रोफेसर बन गए. उनके कमाल की शिक्षण कला की वजह से कई भारतीय यूनिवर्सिटी के अलावा कोलंबो और लंदन यूनिवर्सिटी ने भी मानक उपाधियों से सम्मानित किया. आजादी के बाद वे कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किए और पेरिस में यूनेस्को संस्था के कार्यसमिति अध्यक्ष भी बनाए गए. साल 1949 से 1952 तक वे रूस में भारत के राजदूत पद पर भी रहे. इसके बाद साल 1952 में उन्हें भारत का पहला उपराष्ट्रपति चुना गया और फिर वे राष्ट्रपति बने. बाद में उन्हें भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया.
राधाकृष्णन एक शिक्षक थे. लेकिन वह सारी चीजों को वेबजह नियमों के दायरों में नहीं बांधकर नहीं रखना चाहते थे. अक्सर वह कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाया करते थे. इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट में पूरा हो जाता था. बेवजह क्लास में समय बिताना पसंद नहीं करते थे। इसके बावजूद वह अपने विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे.
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन मानते थे कि देश में सर्वश्रेष्ठ दिमाग वाले लोगों को ही शिक्षक बनना चाहिए. डॉ. राधाकृष्णन ने खुद अपने बारे में यह बताया था कि पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा एक शिक्षक बने. उनके पिता उनकी धार्मिक रुचि व ज्ञान को देखते हुए चाहते थे कि उनका बेटा एक पुजारी बने और धार्मिक कार्य करे. लेकिन पारिवारिक जरुरतों व अपनी अभिरुचि के चलते वह शिक्षण करना शुरु किया और एक एक सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हो गए.
जीवन परिचय व अन्य खास बातें (Know About Sarvepalli Radhakrishnan)
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेन्सी के चित्तूर जिले के तिरूत्तनी ग्राम के एक तेलुगुभाषी ब्राह्मण परिवार में 5 सितम्बर 1888 को हुआ था. तिरुत्तनी ग्राम चेन्नई से लगभग 84 किमी की दूरी पर स्थित था. वर्तमान समय में तमिलनाडु के तिरुवल्लूर जिले में पड़ता है. उनका जन्म स्थान भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है. राधाकृष्णन के पुरखे पहले कभी 'सर्वेपल्ली' नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी गांव में विस्थापित हो गए थे. राधाकृष्णन निर्धन किन्तु विद्वान ब्राह्मण की सन्तान थे. उनके पिता का नाम 'सर्वपल्ली वीरासमियाह' और माता का नाम 'सीताम्मा' था. उनके पिता राजस्व विभाग में एक कर्मचारी थे. उनके उपर बहुत बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था. वीरास्वामी के पांच पुत्र तथा एक पुत्री थी. इन 6 संतानों में राधाकृष्णन का स्थान दूसरा था. उनके पिता ने काफ़ी कठिनाई के साथ परिवार का भरण पोषण किया था.
राधाकृष्णन का बाल्यकाल
राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरुत्तनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर बीता. उन्होंने प्रथम आठ वर्ष अपने गांव तिरुत्तनी में ही गुजारे. यद्यपि उनके पिता पुराने विचारों के थे और उनमें धार्मिक भावनाएं कूट-कूट कर भरीं थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के बीच पढ़ने के लिए भेजा. फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की उनकी शिक्षा वेल्लूर में हुयी. इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से आगे की पढ़ायी पूरी की. वह बचपन से ही मेधावी छात्रों में गिने जाते थे.
जानकार बताते हैं कि इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश भी याद कर लिये थे, लेकिन खुद को मिशनरी शिक्षा से जुड़े रहने के बाद भी खुद को भारतीय संस्कृति व दर्शन से अलग नहीं होने दिया. इस उम्र में ही उन्होंने स्वामी विवेकानन्द और अन्य महान विचारकों का अध्ययन करना शुरू कर दिया था, जिनका प्रभाव उन पर दिखायी देता था. उन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें इसके लिए छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई. इसके बाद उन्होंने 1905 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की. इस दौरान उन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता हासिल हुयी और उनको उच्च प्राप्तांकों वाली डिग्री मिली. इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने भी उन्हें छात्रवृत्ति भी दी.
इसके उपरांत वह दर्शनशास्त्र 1908 में एमए करने लगे. पढ़ाई पूरा करने के बाद 1918 में वह मैसूर महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हो गए. बाद में उसी कॉलेज में वे प्राध्यापक बन गए. डॉ. राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया, जिससे समूचे विश्व ने उनके ज्ञान व दार्शनिक समझ का लोहा माना. ऐसा बताया जाता है कि वह इस दौरान वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर रहे थे. इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन करके अपनी प्रतिभा को निखारने की कोशिश कर रहे थे.
ऐसा था दाम्पत्य जीवन (Sarvepalli Radhakrishnan Family)
आजादी के पहले मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में कम उम्र में ही विवाह की परंपरा थी. शिक्षा दीक्षा के दौरान ही जब परिवार वालों ने राधाकृष्णन के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह परिवार की आज्ञा के विरोध में चाहकर भी न जा सके. इसके बाद 8 मई 1903 को मात्र 14 वर्ष की आयु में उनका विवाह 'सिवाकामू' नामक की कन्या के साथ सम्पन्न हो गया. उस समय उनकी पत्नी की आयु मात्र 10 वर्ष की थी. विवाह के तीन वर्ष बाद ही उनकी पत्नी ने उनके साथ रहना आरम्भ कर दिया था. हालांकि उनकी पत्नी सिवाकामू ने परम्परागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उनका तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था. इसके साथ साथ वह अंग्रेज़ी भाषा भी लिख-पढ़ सकती थी. इसके बाद उनको कुल पांच बेटियां व एक पुत्र पैदा हुए. उनके बेटे का नाम सर्वपल्ली गोपाल था. उनकी 2002 में मृत्यु हो चुकी है. फिलहाल पांच बेटियों में 3 की मृत्यु हो चुकी है, जबकि दो बेटियों में से एक बेंगलुरु व दूसरी अमेरिका में रहती हैं.
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हिन्दू धर्म ग्रंथों व शास्त्रों का गहरा अध्ययन
शिक्षा का प्रभाव जहां प्रत्येक व्यक्ति पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है. क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों के भीतर काफी गहराई तक स्थापित किया जाता था. यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गये थे. लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था. कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे. इस बात को राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दू शास्त्रों का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया. राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है. अपनी मेहनत व लगने राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप दोनों संस्कृतियों का अध्ययन करके यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म व दर्शन काफ़ी समृद्ध है. इसीलिए क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएं की जाती हैं. अपने ज्ञान व अध्ययन के दम पर यह नतीजा निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है, जो प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है.
जीवन दर्शन और सर्वधर्म समभाव
डॉ. राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे. उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है. अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबन्धन करना चाहिए. ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था- "मानव को एक होना चाहिए. मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति तभी सम्भव है. जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शान्ति की स्थापना का प्रयत्न हो." यह संदेश अगर लोग अपनाते तो पूरे विश्व में शैक्षिक विसंगतियों को दूर किया जा सकता था.
बताया जाता है कि डॉ. राधाकृष्णन अपने यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से जब वापस भारत लौटे तो यहां के विभिन्न विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियां प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का सम्मान किया. इसके बाद 1928 की शीत ऋतु में इनकी प्रथम मुलाक़ात पण्डित जवाहर लाल नेहरू से हुयी. उस समय वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये कलकत्ता आए हुए थे. यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, तथापि उन्होंने इस वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया. 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु 'मानचेस्टर विश्वविद्यालय' द्वारा आमंत्रित किया गया. इन्होंने मानचेस्टर एवं लन्दन में कई व्याख्यान दिये.
डॉ. राधाकृष्णन सन् 1931 से 36 तक आंध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे. उसके बाद ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे. इसी बीच 1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. साथ ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया था. सन् 1939 से 48 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे. 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के भी चांसलर रहे.
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ऐसे शुरू हुआ राजनीतिक जीवन (Sarvepalli Radhakrishnan Political Life)
राजनीतिक विचारकों का कहना है कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन की यह प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य बन गए. वह 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे. इसी समय वे कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किये गये थे. अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जायें. जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14-15 अगस्त 1947 की रात्रि को उस समय तक किया जाये जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो. इस दौरान राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वे अपना संबोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें, क्योंकि उसके पश्चात ही पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी.
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पंडित नेहरु के निर्देश पर ऐसा ही किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने संबोधन को विराम देते हुए नेहरु को संवैधानिक संसद की शपथ दिलायी गयी. कहा जाता है कि पण्डित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी.
आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिये विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों में भी सहयोग करें. इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया. पण्डित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शनशास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना जा रहा है. कुछ लोग डॉक्टर राधाकृष्णन को इस पद के लिए उपयोगी नहीं मानते थे. आखिरकार सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे. 1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किया गया. नेहरू ने इस फैसले पर लोगों ने हैरानी जतायी थी. लोग सोचते थे कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव जाएगा. लेकिन उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार संभाला और अपना दो कार्यकाल पूरा किया. इसके बाद वह 1962 में देश के दूसरे राष्ट्रपति बने. इसके पहले डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उनको 1954 में भारत रत्न से सम्मानित किया था.