नई दिल्ली :उच्चतम न्यायालय ने केंद्र द्वारा अपनाए गए 'वन रैंक-वन पेंशन' (OROP) सिद्धांत को बरकरार रखते हुए कहा कि इसमें न तो कोई 'संवैधानिक दोष' है औ न ही यह 'मनमाना' है. न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने कहा किवन रैंक वन पेंशन का केंद्र का नीतिगत फैसला मनमाना नहीं है और सरकार के नीतिगत मामलों में न्यायालय दखल नहीं देगा. शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही सेवानिवृत्त सैनिक संघ की उस याचिका का निपटारा कर दिया जिसमें भगत सिंह कोश्यारी समिति की सिफारिश पर पांच साल में एक बार आवधिक समीक्षा की वर्तमान नीति के बजाय स्वत: वार्षिक संशोधन के साथ 'वन रैंक वन पेंशन' को लागू करने का अनुरोध किया गया था.
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भगत सिंह कोश्यारी समिति की रिपोर्ट, 10 दिसंबर, 2011 को राज्यसभा में पेश की गई थी और यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, मांग का कारण, संसदीय समिति के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है, जिसने सशस्त्र बलों से संबंधित कर्मियों के लिए ओआरओपी को अपनाने का प्रस्ताव रखा था और इसके अलावा, रिपोर्ट को सरकारी नीति के एक बयान के रूप में नहीं माना जा सकता है.
न्यायालय ने यह माना कि संघ द्वारा अनुच्छेद 73 या राज्य द्वारा अनुच्छेद 162 के संदर्भ में तैयार की गई सरकारी नीति को सरकार के नीति दस्तावेजों से आधिकारिक रूप से आंका जाना है, जो वर्तमान मामले में सात नवंबर, 2015 का पत्राचार है. पीठ ने कहा, उपरोक्त सिद्धांतों को मामले के तथ्यों पर लागू करते हुए, हम सात नवंबर, 2015 के संचार द्वारा परिभाषित ओआरओपी सिद्धांत में कोई संवैधानिक दोष नहीं पाते हैं.
उच्चतम न्यायालय का फैसला 'इंडियन एक्स-सर्विसमेन मूवमेंट' (आईईएसएम) द्वारा वकील बालाजी श्रीनिवासन के माध्यम से ओआरओपी के केंद्र के फार्मूले के खिलाफ दायर याचिका पर आया. पीठ ने कहा कि सात नवंबर, 2015 के पत्राचार के संदर्भ में, ओआरओपी का लाभ एक जुलाई 2014 से प्रभावी होना था और इसमे कहा गया है कि भविष्य में, पेंशन हर पांच साल में फिर से तय की जाएगी. पीठ ने कहा, चूंकि ओआरओपी की परिभाषा मनमानी नहीं है, इसलिए हमारे लिए यह निर्धारित करने की कवायद करना आवश्यक नहीं है कि योजना का वित्तीय प्रभाव नगण्य है या बहुत बड़ा है.
पीठ ने अपने 64 पृष्ठ के फैसले में निर्देश दिया कि ओआरओपी के पुनर्निर्धारण की कवायद एक जुलाई, 2019 से की जानी चाहिए और पेंशनभोगियों को बकाया भुगतान तीन महीने में होना चाहिए. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि सभी पेंशनभोगी जो समान रैंक रखते हैं, उनके सुनिश्चित कैरियर प्रगति और संशोधित सुनिश्चित कैरियर प्रगति को ध्यान में रखते हुए उन्हें ‘समरूप वर्ग’ में नहीं रखा जा सकता है.
शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसा कोई कानूनी आदेश नहीं है कि समान रैंक वाले पेंशनभोगियों को समान पेंशन दी जानी चाहिए क्योंकि वे एक समरूप वर्ग नहीं बनाते हैं. इस मामले में करीब चार दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद शीर्ष अदालत ने 23 फरवरी को फैसला सुरक्षित रख लिया था. न्यायालय ने कहा था कि वह जो भी फैसला करेगी वह वैचारिक आधार पर होगी न कि आंकड़ों पर. न्यायालय ने कहा, जब आप (केंद्र) पांच साल के बाद संशोधन करते हैं, तो पांच साल के बकाया को ध्यान में नहीं रखा जाता है. भूतपूर्व सैनिकों की कठिनाइयों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है यदि अवधि को पांच वर्ष से घटाकर कम कर दिया जाए.
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केंद्र ने कहा है कि जब पांच साल बाद संशोधन किया जाता है, तो अधिकतम अंतिम वेतन, जिसमें सभी कारकों को ध्यान में रखा गया था, को ब्रैकेट में सबसे कम के साथ ध्यान में रखा जाता है और यह बीच का रास्ता दिया जा रहा है. सरकार ने कहा, जब हमने नीति बनाई तो हम नहीं चाहते थे कि आजादी के बाद कोई पीछे छूटे. समान रूप से व्यवहार किया गया. हमने पिछले 60-70 वर्षों को शामिल किया है. अब, अदालत के निर्देश के माध्यम से इसमें संशोधन का निहितार्थ हमें ज्ञात नहीं हैं. वित्त और अर्थशास्त्र के साथ कुछ भी सावधानी से विचार करना होगा. पांच साल की अवधि उचित है और इसके वित्तीय निहितार्थ भी हैं.
आईईएसएम की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता हुजेफा अहमदी और श्रीनिवासन ने कहा था कि अदालत को यह ध्यान रखना होगा कि यह उन पुराने सैनिकों से संबंधित है, जिन्होंने अत्याधुनिक हथियारों से लैस आज के समय के सैनिकों के विपरीत आमने-सामने की लड़ाई लड़ी.