नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने एक व्यवस्था दी है कि केंद्र और राज्य सरकारों के पास नागरिकों की जमीन-जायदाद का किसी बात के लिए अधिग्रहण के बाद लंबे समय तक उस पर कब्जा करके बैठे रहने का कोई अनिश्चितकालीन या सर्वोपरि अधिकार नहीं हो सकता.
न्यायालय ने यह भी कहा कि इस प्रकार के कार्य को मंजूरी देना अराजकता की अनदेखी करने से कम नहीं होगा.
जमीन अधिग्रहण के एक पांच दशक से अधिक पुरानी कार्रवाई से संबंधित मामले में फैसला सुनाते हुए शीर्ष अदालत ने केंद्र को बेंगलुरू के बाईपनहल्ली में अधिग्रहण की गई चार एकड़ से अधिक जमीन बीएम कृष्णमूर्ति के कानूनी वारिसों को तीन महीने के भीतर लौटाने को कहा. यह जमीन सरकार ने 57 साल पहले अधिग्रहीत की थी.
न्यायाधीश इंदिरा बनर्जी और न्यायाधीश एस रवीन्द्र भट्ट की पीठ ने कहा कि हालांकि, संविधान के तहत संपत्ति का अधिकार कोई मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन राज्य और केंद्र के पास नागरिकों की अधिग्रहण की गयी संपत्ति को लेकर कोई असीमित अधिकार नहीं हो सकता है.
पीठ ने कहा कि इसीलिए राज्य को अपने किसी भी रूप में (कार्यपालिका, राज्य एजेंसिया या विधायिका के रूप में) अपनी सुविधा के अनुसार कानून या संविधान की उपेक्षा करने का अधिकार नहीं हो सकता. इस न्यायालय का फैसला और संपत्ति के अधिकार का इतिहास बताता है कि भले ही यह मौलिक अधिकार के अंतर्गत नहीं आता, तो भी कानून का शासन इसका संरक्षण करता है.
शीर्ष अदालत ने केंद्र से कृष्णमूर्ति के कानूनी वारिस को कानूनी खर्चे के रूप में 75,000 रुपये देने को कहा.
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हाल के निर्णयों का जिक्र करते हुए न्यायाधीश भट्ट ने लिखे फैसले पर कहा कि संपत्ति का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है, जो आजादी और आर्थिक स्वंतत्रता सुनिश्चित करता है.