कोलकाता :भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास नेताजी सुभाष चंद बोस के बिना अधूरा है, वह व्यक्ति जिन्होंने अकेले ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य और उसके औपनिवेशिक शासन की जड़ें हिलाकर रख दी थीं. अंग्रेज सुभाष चंद को हमेशा अपनी निगरानी में रखना चाहते थे और यही कारण था कि उन्हें दार्जिलिंग स्थित गिद्दापहाड़ (Giddapahar) के एक घर में 1936 के जून महीने से छह महीने के लिए नजरबंद कर दिया गया था.
दार्जिलिंग से जुड़ी नेताजी की यादों पर खास रिपोर्ट दार्जिलिंग जिसे मानों प्रकृति ने खूबसूरती का वरदान दिया है. पक्की सड़कें हरी-भरी पहाड़ियों को जोड़ती हैं. जैसे-जैसे सड़क ऊंचाई पर पहुंचती है. हवा में जैसे कोहरे की एक चादर छा जाती है. घूमने की लालसा और यहां के बारे में जानने के लिए हम पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग पहाड़ियों में स्थित गिद्दा पहाड़ पहुंचते हैं.
दार्जिलिंग स्थित गिद्दापहाड़ का संग्रहालय ( फोटो-ईटीवी भारत) गिद्दापहाड़! पहाड़ियों का अनोखा गांव, जो एक महान स्वतंत्रता सेनानी की दृढ़ता, उपस्थिति और अदम्य भावना का साक्षी है. वह व्यक्ति जिन्होंने मातृभूमि के लिए सर्वोच्च बलिदान का आह्वान किया. वह जो अपनी महिला प्रेम (lady love) के साथ-साथ अपने साथियों को भी पत्र लिखते थे. जी हां, दार्जिलिंग हिल्स के कुर्सेओंग ब्लॉक में गिद्दापहाड़ अपने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को ऐसे ही जानता है.
संग्रहालय में मौजूद नेताजी की यादें ( ईटीवी भारत) 'औपनिवेशिक शक्तियां रख रही थीं नेताजी पर नजर'
सिलीगुड़ी कॉलेज के प्राचार्य सुजीत कुमार घोष का कहना है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी स्वयं एक संस्था बन गए थे. ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, अब यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय नेताओं के एक वर्ग ने कांग्रेस चुनावों में सीतारामय्या को हराने के बाद सुभाष बोस को घेरने का जानबूझकर प्रयास किया था. अंग्रेज भी जानते थे कि उनका (नेताजी) अपना एक दिमाग है. एक तरफ वह 1942 के गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग ले रहे थे और दूसरी तरफ सुभाष बोस अपने तरीके से अंग्रेजों को मात देने की कोशिश कर रहे थे. आज हम जो भी दस्तावेज प्राप्त कर सकते हैं या सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध हैं, अब यह स्पष्ट है कि औपनिवेशिक शक्तियां (colonial powers) भी सुभाष बोस पर नजर रख रही थीं.
निजी बटलर कालू सिंह बने दुनिया से जोड़ने का माध्यम
गिद्दापहाड़ के इस बंगले को सुभाष बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस (Sarat Chandra Bose) ने 1922 में खरीद लिया था. बोस परिवार अक्सर छुट्टियों में घर आता था और सुभाषचंद बोस ज्यादातर मौकों पर सदस्यों के साथ जाया करते थे लेकिन, 1935 के बाद सब कुछ बदल गया जब नेताजी को उसी घर में नजरबंद कर दिया गया. यहीं पर उनका निजी बटलर कालू सिंह लामा ही उनको बाहरी दुनिया से जोड़ने का माध्यम था. कालू सिंह लामा ही उनके संदेश बाहर ले जाता था और लाता था. चाहे उसके लिए वह अपने जूतों का सहारा लेता था, चाहे रोटियों के जरिए ऐसा करता था.
नेताजी इंस्टीट्यूट फॉर एशियन स्टडीज
इस घर में नजरबंद होने के दौरान ही सुभाषचंद ने बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय (Bankim Chandra Chattopadhyay) के वंदे मातरम में कुछ शब्दों के इस्तेमाल पर रवींद्रनाथ टैगोर को लिखा था. 1996 में राज्य सरकार ने इस घर को नेताजी इंस्टीट्यूट फॉर एशियन स्टडीज संग्रहालय में बदल दिया.
नेताजी संग्रहालय के अफसर गणेश प्रधान ने बताया कि नजरबंदी के दिनों में उन्हें कभी भी बाहरी लोगों से बात करने या मिलने की अनुमति नहीं थी. एकमात्र अपवाद उनके निजी बटलर कालू सिंह लामा थे. कालू सिंह के माध्यम से ही नेताजी रोटियों के अंदर छिपे दस्तावेज और पत्र भेजते थे. बाद में लामा कुर्सोंग में मोची के घर जाते थे और उन्हें अपने जूतों के तलवों में छिपा देते थे. कालू सिंह नेताजी के पत्र लेकर कोलकाता जाया करते थे और जवाब वापस लाने का इंतजार करते थे. यहां नजरबंद होने के दौरान नेताजी बाहरी दुनिया से इस तरह संवाद करते थे.
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कालू सिंह लामा के परिवार की सदस्य हिंडा लेपचा (Hinda Lepcha) ने बताया कि 'मैंने नेताजी को नहीं देखा है, लेकिन मेरे ससुर उन्हें बचपन से जानते थे. वे नेताजी के साथ खेलते थे. नेताजी को नजरबंद किया गया तो वह उनके लिए खाना लेकर जाते थे. यहां तक कि नेताजी की मॉर्निंग वॉक के दौरान भी वह मौजूद होते थे. अपने कुत्ते के साथ उनके साथ जाया करते थे. मैंने अपने ससुर से सुना है कि नेताजी के पत्रों को अपने जूतों में छिपाकर कोलकाता ले जाते थे.
संग्रहालय में सुरक्षा दल के सदस्य पदम बहादुर छेत्री ने बताया कि 'नेताजी यहां अपने भाई शरत बोस और उनके परिवार से मिलने आते थे. मैंने दूसरों से सुना है कि नेताजी उनके साथ कुछ घंटे बिताकर यहां से चले जाते थे. मैंने अभी-अभी उसकी तस्वीरें देखी हैं. किसी ने मुझे उनकी तस्वीर दिखाई और कहा, यह हमारे नेताजी हैं.'
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उपलब्ध रिकॉर्ड के मुताबिक नेताजी ने अपनी नजरबंदी के दौरान इस गिद्दापहाड़ बंगले से 26 पत्र बाहर भेजे थे. उन्हें कई लिखित संचार भी प्राप्त हुए थे. गिद्दापहाड़ बंगला बंगाल की पहाड़ियों के बीच नेताजी की यादों का हमेशा गवाह रहेगा.