गया : कहते हैं पढ़ाई हर मुश्किलों का हल है. ये फार्मूला गया के आईआईटीएन गांव में आकर पास होता दिखता है. ये गांव कभी बुनकरों का होता था लेकिन धीरे धीरे इस गांव के युवा इंजीनियर बनने लगे. 'पटवा टोली' गांव का विकास एक ऐसे सामाजिक बंधन से हुआ जिसमें हर कोई बंधा हुआ है. इसको निभाना लगभग सभी की जिम्मेदारी है. फिर चाहे ये लोग गांव में रहें या विदेशों में, इनको अपने गांव की ही परंपरा का सख्ती से पालन करना होता है. अगर समाज के बनाए 'दहेज न लेने की परंपरा' को तोड़ा तो उसका अंजाम 'समाज बहिष्कार' के रूप में भुगतना पड़ता है. वहीं दूसरी जाति में विवाह करने पर भी उस परिवार को समाज से अलग मान लिया जाता है. इसके पीछे पटवा समाज के अपने तर्क हैं.
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''मेरी उम्र 62 साल की है. उन्होंने आज तक दहेज वाली शादी नहीं देखी. यह समाज के लिए बड़ा वरदान है, जो हमारे पूर्वजों ने दिया है. यदि कोई दहेज लेता है, तो उसे सामाजिक दंड समाज के बनाए नियम के अनुसार दिया जाता है. वहीं, दूसरे समाज में शादी करने पर भी इसी प्रकार का प्रावधान लागू किया जाता है.'' - दयानंद प्रसाद, पटवा समाज के सदस्य
गांव में दहेजमुक्त परंपरा : दरअसल, गया के मानपुर पटवा टोली गांव में ये परंपरा पिछले 100 सालों से चली आ रही है. सभी को दहेज मुक्त विवाह संबंध बनाने होते हैं. अगर किसी ने दहेज लिया तो समाज से बहिष्कार कर दिया जाता है. इस परंपरा को यहां के गांव वाले निभाते चले आ रहे हैं. वैसे इस गांव को इंजीनियरों की नगरी भी कहते हैं क्योंकि यहां के युवा 18 देशों में इंजीनियर हैं. पटवा टोली गांव की शाखाएं जहां कहीं भी हों लेकिन इसकी जड़ इसी 'नियम' से जुड़कर संचालित हो रही है.