नई दिल्ली : सपा संरक्षक और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का निधन (Mulayam Singh Yadav Dies at 82) हो गया है. उन्हें 22 अगस्त को मेदांता अस्पताल में भर्ती किया गया था. आज सोमवार की सुबह करीब 8:30 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली. इस बात की जानकारी अस्पताल प्रबंधन व परिवार के लोगों ने दी. समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने 1992 में एक बड़ा राजनीतिक फैसला लिया था और अपनी नयी राजनीतिक पार्टी अपने दम पर बनाने व चलाने की बात सोची थी. आज उनके निधन के बाद मुलायम सिंह के कार्यों व राजनीति में किए गए प्रयोगों के बारे में चर्चा होने लगी है.
1989 से 1991 के बीच पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह से और फिर चंद्रशेखर से मुलायम सिंह यादव का मोहभंग हो चुका था. सितंबर 1992 के खत्म होते होते मुलायम सिंह ने सजपा से नाता तोड़ लिया और 4 अक्टूबर 1992 को लखनऊ में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा कर दी. इसके बाद 4 और 5 नवंबर को बेगम हजरत महल पार्क में उन्होंने पार्टी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया गया तो मुलायम सिंह यादव को समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष, जनेश्वर मिश्र को उपाध्यक्ष, कपिल देव सिंह और मोहम्मद आज़म खान को महामंत्री बनाकर एक संदेश दिया गया कि सपा में मुसलमान नेताओं को जगह दी जाएगी, लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा को जब कोई पद नहीं मिला और वह रूठकर घर में बैठ गए. वह सम्मेलन में भी नहीं जा रहे थे. जैसे ही यह बात मुलायम सिंह को पता चली वह उनके घर जा पहुंचे और मनाकर सम्मेलन में लेकर आए. ऐसे ही रुठने व मनाने के दौर के बीच सपा का गठन हुआ व रुठते मनाते यह पार्टी आगे बढ़ती रही.
तब से लेकर अब तक पार्टी ने लगभग 30 सालों का सफर तय किया है और इस दौरान तमाम तरह के प्रयोग भी हुए और कई बार पार्टी सत्ता में आयी. अब यह पार्टी मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश के हाथों में है और इनका मार्गदर्शन प्रोफेसर राम गोपाल यादव सहित पार्टी के अन्य बड़े नेता कर रहे हैं. कई बार अखिलेश ने पिता के निर्देश को मानकर तो कई बार उनके निर्देश से अलग अपने मन के फैसले लिए लेकिन वह सत्ता की चाबी हासिल करने में असफल रहे हैं. वह पिता के सत्ता हासिल करने वाले गठबंधन का फार्मूला भी अपनाने की कोशिश कर चुके हैं लेकिन फेल हो गए हैं. आखिर क्यों पिता की राह पर चलकर अखिलेश फेल हो गए..उसे जानने की कोशिश करते हैं. इसके पहले फ्लैश बैक में जाकर 1993 के गठबंधन व उससे जुड़ी बातों को जानने समझने की कोशिश करते हैं.
ऐसे ...'हवा में उड़ गए जयश्रीराम'
कहा जाता है कि 1992 के आखिर में पार्टी बनाने के एक माह के भीतर सम्मेलन करके अपनी दल को स्थायित्व देने की कोशिश की, लेकिन 1992 में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद भाजपा की हिन्दुत्व की लहर को काटने के लिए मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम से हाथ मिलाने का बड़ा फैसला किया और इसका उत्तर प्रदेश की राजनीति में असर भी दिखा. इस सफलता के बाद नारा लगा..मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्रीराम.
उत्तर प्रदेश में नवंबर 1993 के विधानसभा चुनाव में, सपा ने गठबंधन सरकार बनाने के लिए पर्याप्त सीटें जीतीं और अगले महीने यादव फिर से दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बन गए. समाजवादी पार्टी ने अपनी स्थापना के एक साल बाद दिसंबर 1993 बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बाहरी समर्थन से एक गठबंधन सरकार बनायी. 1993 में मुसलमानों ने सपा उम्मीदवारों के लिए भारी मतदान किया, जिन्होंने राज्य विधानमंडल के निचले सदन में 422 सीटों में से 109 सीटें जीतीं, लेकिन यह सरकार केवल 18 महीने तक चली, बसपा द्वारा अपना समर्थन वापस लेने के बाद सपा की सरकार गिर गयी.
1993 में जब इन दोनों दलों के संस्थापक नेताओं मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने हाथ मिलाया था, तब दोनों ही दल अपने सियासी दौर में नए नए गिने जाते थे. कोई इनको सीरियसली नहीं लेता था. देश व प्रदेश की राजनीति में एक दशक से संघ परिवार के अयोध्या आंदोलन, लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्राओं, कारसेवकों पर पुलिस की गोली और अंतत छह दिसंबर 1992 के बाबरी विध्वंस से पैदा हुआ हिंदुत्व के ज्वार और सांप्रदायिक उन्माद अपने चरम पर दिख रहा था. इसके बावजूद सपा बसपा गठबंधन ने 1993 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को हरा दिया. साथ में मिलकर न सिर्फ उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनायी बल्कि दोनों दलों ने एक दूसरे को संजीवनी दी थी.
1993 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में चौकोना मुकाबला हुआ था. मस्जिद विध्वंस के लिए अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार कुर्बान कर चुकी भाजपा हिंदुत्व की लहरों पर सवार होकर सबको ललकार रही थी और उसे उम्मीद थी कि लचर कांग्रेस उसके मुकाबले में कहीं नहीं टिकेगी. साथ ही जनता दल अपने तमाम दिग्गज नेताओं के जमघट को लेकर भाजपा के खिलाफ धर्म निरपेक्षता और सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा अलंबरदार बनने का दावा कर रहा था कि वह और मजबूत होगा. ऐसे में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने इस सियासी भंवर में अपनी गठबंधन की नाव भी उतार दी तो दिल्ली में बैठे राजनीतिक विश्लेषक और चुनावी पंडित अपनी दूरबीन से या तो भाजपा की जीत की भविष्यवाणी कर रहे थे या फिर जनता दल को उसके मुकाबले में सबसे बड़ी ताकत बता रहे थे, लेकिन वाम मोर्चे के बुजुर्ग और अनुभवी नेता माकपा महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत सपा बसपा गठबंधन की जमीनी ताकत को भांप चुके थे. इसलिए वह अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं का फीडबैक लेकर अपना आशीर्वाद और सहानुभूति मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के साथ दिखायी.
जब चुनाव प्रचार तेज हुआ तो सपा बसपा गठबंधन की जमीनी हकीकत व ताकत को विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भांप लिया. इसीलिए वह सियासी रैलियों में शामिल होना बंद करके अपने आप को उत्तर प्रदेश से अलग कर लिया. जब चुनावी नतीजे आने शुरु हुए तो जिसे लोग नामुमकिन मान रहे थे, वो मुमकिन हो साबित हो गया और सपा बसपा गठबंधन ने भाजपा का विजयी रथ रोक दिया. जनता दल महज 27 और कांग्रेस 28 सीटों तक सिमट कर रह गया. इस चुनाव में भाजपा 176 सीटें पाने वाले गठबंधन से महज एक सीट आगे थी, लेकिन उसकी सीटें 221 से घटकर 177 रह गईं थीं.
लेकिन 1995 में हुए गेस्ट हाउस कांड से दोनों पार्टियां अलग हो गयीं थीं. मायावती ने सत्ता में आने के बाद सपा के नेताओं पर कार्रवाई भी की थी. 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद से सपा-बसपा में इतनी तल्खियां बढ़ गयी थीं कि दोनों ही दल एक दूसरे को अपना कट्टर प्रतिद्धंदी मानने लगे थे. हालात ऐसे थे कि दोनों दलों का एक साथ आना असंभव सा था ऐसे में अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन का कोई फायदा न मिलने से सबक लेते हुए मुलायम सिंह यादव के उस गठबंधन को दोहराने की सोची, जिसके जरिए राम लहर में सपा-बसपा ने भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया था.
बदले हालात में नहीं हुआ बदलाव
उस समय (1993) के हालात व इस समय (2019) के हालात में अंतर था. मुलायम सिंह यादव की पकड़ पार्टी में कमजोर हो गयी थी अखिलेश सर्वेसर्वा हो गए थे और कांशीराम की मौत के बाद से मायावती की पकड़ पार्टी में काफी मजबूत हो चुकी थी. दोनों दलों के नेताओं में कोई संवाद नहीं होता था. दोनों दलों के नेता कभी एक दूसरे के सामने भी नहीं पड़ने की कोशिश करते थे. लेकिन बदले हालात व लगातार कमजोर हो रही दोनों दलों की स्थिति ने एक बार फिर से 1993 वाले फार्मूले पर चुनाव लड़ने की सोची. अखिलेश यादव की पहल को मायावती ने स्वीकार किया. मुलायम सिंह यादव चाहकर भी दोनों दलों का गठबंधन रोक नहीं पाए. बसपा को भी 2014 की लोकसभा में एक भी सांसद न जिता पाने का मलाल था और सपा को भी अपने सांसदों की संख्या बढ़ानी थी. ऐसे में दोनों दलों ने एकबार फिर हाथ मिलाने की सोची और पार्टी के अंदर के छोटे मोटे विरोध के बाद भी साथ में चुनाव लड़ने का फैसला किया.
दोनों दलों के नेताओं ने 2017 के विधानसभा चुनावों का विश्लेषण करके देखा तो सोचा कि सपा कांग्रेस गठबंधन और बसपा के बीच हुए मत विभाजन ने भाजपा को 325 सीटों का रिकार्ड बहुमत मिल गया था और सपा महज 47 कांग्रेस 7 और बसपा 19 सीटों पर सिमट गयी थी. इस चुनाव में सपा-बसपा का कुल मत प्रतिशत भाजपा को मिले 39.5 फीसदी मतों की तुलना में 44 फीसदी से ज्यादा बैठ रहा था. यह अंतर 5 फीसदी से अधिक था. दोनों दलों के रणनीतिकारों को लगा कि यह 5 फीसदी का यह फर्क अगले चुनाव में बढ़ने के साथ साथ नतीजों को बदल सकता है. यहीं आंकड़ा दोनों के गठबंधन का आधार बना.