कोलकाता : पिछले साल लॉकडाउन के बाद प्रवासी श्रमिकों की जो दुर्दशा हुई उसकी तस्वीर अभी भी हर किसी के दिमाग में ताजा है. वे पैदल ही सैकंड़ो किलामीटर दूर निकल पड़े थे. उन्हें सड़क के किनारे रात गुजारनी पड़ी. कुछ मजदूर घर लौट आए, तो कुछ मजदूरों की रास्ते में मौत हो गई.
पश्चिम बंगाल में भी प्रवासी श्रमिकों की तस्वीर देश के बाकी हिस्सों की तरह दुखद थी. उस समय, केंद्र और राज्य प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा को लेकर एक-दूसरे को दोष देने का खेल खेल रहे थे. इस साल के विधानसभा चुनाव में फिर से वही तस्वीर देखी को मिल रही है.
आज लॉकडाउन के एक साल बाद सितालकुची में हुई हिंसा ने प्रवासियों की उन भयावह यादों को एक बार फिर उजागर कर दिया है. सितालकुची हिंसा में मारे गए चार लोगों में से दो प्रवासी मजदूर थे. वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने के लिए गांव लौटे थे. वे लोकतंत्र के इस त्योहार में भाग लेना चाहते थे. लेकिन वे लोकतंत्र के इस त्योहार के शिकार हो गए.
20 साल के नूर आलम बैंगलोर में काम करते थे और वोट डालने के लिए घर आए थे. नूर का इलाके में तृणमूल-भाजपा के झगड़े से कोई लेना-देना नहीं था. उन्हें मतदान के बाद फिर से बैंगलोर जाना था, लेकिन एक पल में सब कुछ बर्बाद हो गया.
वहीं समीउल भी काम के कारण बाहर रहता थे. वह गंगटोक में काम करते थे. वह मतदान से ठीक एक दिन पहले घर लौटे. मतदान के दिन घर की सारी खुशियां उल्ट गया. वह लोकतंत्र के त्योहार में भाग लेने के लिए आए और अपनी जान गंवा दी.