मुंबई: यह सही है कि प्रधानमंत्री मोदी ने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की है. लेकिन किसान अपना आंदोलन वापस लेने को तैयार नहीं हैं. मोदी ने घोषणा की, लेकिन उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता. जब तक संसद में प्रस्ताव पेश करके इन कानूनों को निरस्त नहीं किया जाता तब तक आंदोलन जारी रहेगा. ऐसा संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं का कहना है.
संसद का सत्र 29 तारीख से शुरू हो रहा है. किसान मोर्चा इससे पहले घोषणा कर चुका है कि सत्र के पहले दिन 500 किसान ट्रैक्टर के साथ दिल्ली में दाखिल होंगे. यह आंदोलन जारी रहेगा. इसका मतलब यह है कि देश के प्रधानमंत्री के शब्द को किसान मानने को तैयार नहीं हैं. किसानों को प्रधानमंत्री पर भरोसा नहीं है. प्रधानमंत्री जो कहते हैं वैसा करते हैं, इसका विश्वास उनको नहीं है.
प्रधानमंत्री के पास लोकसभा में बहुमत है. लेकिन लोगों का विश्वास खो दिया है. यह तस्वीर अच्छी नहीं है. लोकसभा में बहुमत के बल पर मंजूर किया गया कानून बाहर लोगों ने अस्वीकार कर दिया. फिर भी प्रधानमंत्री लोगों की बात सुनने को तैयार नहीं थे. आखिरकार लोगों का गुस्सा इतना बढ़ा कि उन्हें कानून वापस लेना पड़ा. मोदी का मन कितना बड़ा है, ऐसी थाली अब बजाई जा रही है. लेकिन इस दौरान 700 किसानों ने अपनी जान गवां दी. यह किसी बड़े अथवा दिलदार मन का लक्षण नहीं है.
इसीलिए किसान आंदोलन वापस लेने को तैयार नहीं हैं. किसान कहते हैं कि कानून संसद में वापस लिया जाना चाहिए और यह सही है. डेढ़ वर्ष में अनेक किसानों पर जो अपराध दर्ज किए गए, उन्हें वापस लेने की मांग है. किसान उपज का समर्थन मूल्य निर्धारित करने की मांग पर भी अड़े हुए हैं. किसानों की भूमिका ऐसी नजर आ रही है कि अभी नहीं तो कभी नहीं. पंजाब-हरियाणा का किसान उठ खड़ा हो तो क्या कर सकता है, यह इस आंदोलन ने दुनिया को दिखा दिया है.
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पंजाब के किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानवादी बताया गया फिर भी उन्होंने संयम नहीं खोया. किसानों का धैर्य छूट जाए और दंगे हों इसके लिए सरकार ने प्रयास किया. लेकिन यह पूरी तरह से विफल रहा. सारे प्रयास करके थक गए, तब तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा हुई. लेकिन कानून मौखिक रूप से वापस नहीं होते, उसे संसद में वापस लेने का पेच किसानों ने डाला है. इसका मतलब यह है कि किसान फिर से धोखा खाने को तैयार नहीं हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि राजस्थान के पूर्व राज्यपाल कलराज मिश्र जैसे नेता सार्वजनिक तौर पर कह रहे हैं, 'कृषि कानून आज वापस ले लिए गए हैं, परंतु वे कल फिर से लागू होंगे ही!’
कलराज मिश्र ने जो कहा उसका ही भय किसानों को सता रहा है. इसीलिए किसान घर वापस जाने को तैयार नहीं हैं. प्रधानमंत्री की घोषणा काले पत्थर पर लकीर होती है, विश्वास होता है; लेकिन कृषि कानूनों को लेकर प्रधानमंत्री का शब्द नहीं माना जा रहा. ऐसा क्यों हो रहा है, इसका विचार मोदी को करना चाहिए. मोदी की घोषणा के बाद किसान नेताओं ने संयम की भूमिका अपनाई और विजयोत्सव आदि नहीं मनाया. इसके विपरीत बेहद ही अनुशासनबद्ध होकर समर्थन मूल्य का मुद्दा रखा.
किसानों का कहना है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर चर्चा हो. किसानों की आय दोगुनी होगी आदि की घोषणा मोदी सरकार ने की है. घोषणा गलत नहीं और सरकार की इच्छा भी गलत नहीं है लेकिन आय सही में दोगुनी हो गई है तो दिखाओ. हालांकि किसानों की आत्महत्याएं दोगुनी बढ़ गईं. इसे कौन सा लक्षण माना जाए? महाराष्ट्र हो या देश के अन्य राज्य, भाजपा का हर जगह केवल भड़काने का प्रयास जारी है. यह महत्वपूर्ण है कि किसान झुके नहीं.
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राकेश टिकैत, बलवीर सिंह, जालिंदर सिंह विर्क जैसे नेता डटे रहे. कृषि कानून के विरोध में आंदोलन करनेवाले किसान नेताओं के खिलाफ देश के किसान समुदाय में गंदा प्रचार करके भी मोदी सरकार के हाथ कुछ नहीं लगा. पंजाब का किसान सड़कों पर उतरा और मजबूती के साथ खड़ा रहा. इसलिए तीनों कानून रद्द करने पड़े. जब तक पूरी तरह से कानून निरस्त नहीं हो जाते, तब तक किसान पीछे नहीं हटेंगे.
लोगों के दबाव के कारण कई बार झुकना पड़ता है लेकिन यह रट और लोकभावना अलग ही है. प्रधानमंत्री रोज शब्दों का बुलबुला फोड़ते रहे तो उसकी गंभीरता कम हो जाती है. लोगों का भरोसा भी उठ जाता है. मोदी के मामले में भी यही होता दिखाई दे रहा है. यह अच्छी बात नहीं है.