हैदराबाद : भारत और पाकिस्तान का रिश्ता दुनियाभर में जगजाहिर हैं. युद्ध के मोर्चे पर पाकिस्तान ने जितनी बार भी नापाक पहल की उसे हर बार मात ही मिली. बीते 7 दशकों में ना जाने कितनी बार पाकिस्तान ने कई बार घुसपैठ और कई बार सीज़फायर का उल्लंघन किया है. पाकिस्तान ये सब तब कर रहा है जबकि दोनों देशों के बीच एक ऐतिहासिक समझौता हुआ था. जिसे दुनिया शिमला समझौते के नाम से जानती है, जो 2 जुलाई 1972 को हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में हुआ था.
1971 में हुए युद्ध के बाद हुआ था समझौता
साल 1971 में भारत ने पाकिस्तान को वो जख्म दिया, जो उसे हमेशा दर्द देता रहेगा. ये उस दौर की बात है जब आज का बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था. साल 1971 में हुए युद्ध के बाद पाकिस्तान दो टुकड़ों में बंट गया और बांग्लादेश नाम के नए देश का जन्म हुआ था.
दरअसल ये वो दौर था जब पूर्वी पाकिस्तान में अलग राष्ट्र की मांग को लेकर आंदोलन हो रहे थे. पाकिस्तानी सेना का अत्याचार वहां चरम पर था. जिससे बचने के लिए लाखों शरणार्थी भारत में शरण लेने पहुंच गए थे. जिसके बाद साल 1971 के आखिर में भारत सरकार ने मुक्तिवाहिनी की मदद का फैसला लिया. मुक्तिवाहिनी बांग्लादेश की मांग करने वाली पूर्वी पाकिस्तान की सेना थी.
भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ ये युद्ध 16 दिसंबर को समाप्त भी हो गया. जिसे विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है. कहते हैं कि भारतीय फौज ने सिर्फ 13 दिन में पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया था. 16 दिसंबर को पाकिस्तान के 90 हजार से ज्यादा सैनिकों ने भारत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था. भारत के आगे पाकिस्तान ने घुटने टेके तो पूर्वी पाकिस्तान एक नए देश बांग्लादेश के रूप में अस्तित्व में आ गया.
फिर रखी गई शिमला समझौते की बुनियाद
इस युद्ध के बाद देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आयरन लेडी कहा जाने लगा था. युद्ध में भारत से हारने के बाद 90 हजार से ज्यादा पाक सैनिक युद्ध बंदी थे. उधर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो पर दबाव बढ़ रहा था. उन्हें अहसास था कि इसके बदले उन्हें देश की आवाम का विरोध झेलना पड़ेगा. जिसके बाद उन्होंने भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बात कर समझौते का संदेश भिजवाया था. जिसके लिए 28 जून से 2 जुलाई तक शिमला शिखर वार्ता का कार्यक्रम तय हुआ.
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आधी रात को हुए थे शिमला समझौते पर दस्तखत
28 जून के तय कार्यक्रम के तहत पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो और उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो के साथ एक प्रतिनिधिमंडल शिमला पहुंचा. इंदिरा गांधी पहले से ही शिमला में मौजूद थी. कहते हैं कि समझौते के लिए भारत ने पाकिस्तान के सामने कुछ शर्तें रखीं. जिनमें से कुछ पर पाकिस्तान को ऐतराज था लेकिन इंदिरा गांधी अड़ी रहीं. कहते हैं कि समझौते से पहले एक बार बात बिगड़ गई थी और एक वक्त आया जब लग रहा था कि पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल वापस लौट जाएगा.
इंदिरा गांधी अपनी बात पर अड़ी रहीं और आखिर में उनकी कूटनीति काम कर गई. 2 जुलाई को पाक प्रतिनिधिमंडल के लिए विदाई भोज रखा गया था. बात बनते और बिगड़ने के बीच लगने लगा था कि अब कोई समझौता नहीं होगा. लेकिन तभी रात के करीब 10 बजे राजभवन में हलचल बढ़ने लगी.
भुट्टो और इंदिरा के बीच एक घंटे की बातचीत के बाद तय हुआ कि समझौता होगा और अभी होगा. आनन-फानन में समझौते के कागजात तैयार किए गए और रात 12 बजकर 40 मिनट पर शिमला समझौते पर इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टों ने हस्ताक्षर किए. इसलिये तकनीकी रूप से ये समझौता 3 जुलाई को हुआ था.
ना मेज पर कपड़ा था ना दस्तखत के लिए कलम
शिमला के वरिष्ठ पत्रकार पीसी लोहुमी व रविंद्र रणदेव इस समझौते की कई बातें बताते थे. पीसी लोहुमी के मुताबिक समझौते के दौरान कई दिलचस्प बातें हुई. एक वक्त ठंडे बस्ते में जाते समझौते पर एकाएक बात बन गई. कहते हैं कि ये सब कुछ इतनी तेजी में हुआ जब शिमला समझौते पर हस्ताक्षर होने थे तब ना तो राजभवन की उस टेबल पर कपड़ा था और ना ही समझौते पर हस्ताक्षर के लिए कलम.
आनन-फानन में सारे इंतज़ाम किए गए थे. कहते हैं कि वहां मौजूद पत्रकारों ने ही भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो को समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए कलम दी थी.