नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि लोगों को उतावलेपन में केवल कुछ अखबारी खबरों के आधार पर आधी-अधूरी याचिकाएं (newspaper report based plea) दायर करने से बचना चाहिए. न्यायालय ने इजराइली स्पाईवेयर पेगासस के जरिए भारत में कुछ लोगों की कथित जासूसी के मामले की जांच के लिए विशेषज्ञों की तीन सदस्यीय समिति का गठन करने के अपने फैसले में यह टिप्पणी की. प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना, न्यायमूर्ति सूर्य कांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि इस तरह की याचिकाएं याचिका दायर करने वाले व्यक्ति द्वारा समर्थित मुद्दे में मदद नहीं करती हैं बल्कि मकसद का नुकसान पहुंचाती हैं.
बुधवार को पेगासस मामले में चीफ जस्टिस रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, 'हम समझते हैं कि इन याचिकाओं में लगाए गए आरोप उन मामलों से संबंधित हैं जिनके बारे में आम नागरिकों को समाचार एजेंसियों द्वारा की गई जांच रिपोर्टिंग के अलावा कोई जानकारी नहीं होती लेकिन दायर की गई कुछ याचिकाओं की गुणवत्ता को देखते हुए, हम यह टिप्पणी करने के लिए बाध्य हैं कि लोगों को केवल अखबारों की कुछ खबरों पर आधी अधूरी याचिकाएं (newspaper report based plea) दायर नहीं करनी चाहिए.'
क्या समाचार एजेंसियों पर भरोसे की कमी ?
पीठ ने कहा कि यही कारण है कि अदालतों में, विशेष रूप से इस न्यायालय में, जो देश में फैसला करने वाला अंतिम निकाय है, इस तरह की याचिकाओं को जल्दबाजी में दायर करने से हतोत्साहित करने की जरूरत है. हालांकि, सर्वोच्च अदालत ने कहा कि इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि अदालत को समाचार एजेंसियों पर भरोसा नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के प्रत्येक स्तंभ की राजव्यवस्था में भूमिका पर जोर देना है.
पीठ ने कहा, 'समाचार एजेंसियां तथ्यों की रिपोर्ट देती हैं और उन मुद्दों को सामने लाती हैं जो अन्यथा सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आ सकते ... लेकिन सामान्य तौर पर समाचार पत्रों की खबरों को तैयार याचिकाओं के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए, जिन्हें अदालत में दायर किया जा सकता हो.'
37 साल पुरानी बात का उल्लेख
इसके अलावा अदालत ने अपने फैसले में जॉर्ज ऑरवेल की लगभग 37 साल पहले कही गई बात का भी उल्लेख किया. पीठ ने अंग्रेजी उपन्यासकार ऑरवेल के हवाले से कहा, 'यदि आप कोई बात गुप्त रखना चाहते हैं, तो आपको उसे स्वयं से भी छिपाना चाहिए.' शीर्ष अदालत ने कहा कि कथित जासूसी विवाद की स्वतंत्र जांच कराए जाने की मांग करने वाली याचिकाएं यह 'ऑरवेलियन चिंता' पैदा करती हैं कि आप जो सुनते हैं, वह सुनने, आप जो देखते हैं, वह देखने और आप जो करते हैं, वह जानने के लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किए जाने की कथित रूप से संभावना है.
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कोर्ट का प्रयास 'राजनीतिक बयानबाजी' में शामिल हुए बिना संवैधानिक आकांक्षाओं और कानून के शासन को बनाए रखना है, लेकिन उसने साथ ही कहा कि इस मामले में दायर याचिकाएं 'ऑरवेलियन चिंता' पैदा करती हैं. बता दें कि 'ऑरवेलियन' उस अन्यायपूर्ण एवं अधिनायकवादी स्थिति, विचार या सामाजिक स्थिति को कहते हैं, जो एक स्वतंत्र और खुले समाज के कल्याण के लिए विनाशकारी हो.
सूचना क्रांति के युग में रहते हैं, लेकिन...
पीठ ने कहा, 'यह न्यायालय राजनीतिक घेरे में नहीं आने के प्रति हमेशा सचेत रहा है, लेकिन साथ ही वह मौलिक अधिकारों के हनन से सभी को बचाने से कभी नहीं हिचकिचाया.' पीठ ने कहा, 'हम सूचना क्रांति के युग में रहते हैं, जहां लोगों की पूरी जिंदगी क्लाउड या एक डिजिटल फाइल में रखी है. हमें यह समझना होगा कि प्रौद्योगिकी लोगों के जीवनस्तर में सुधार करने के लिए उपयोगी उपकरण है, लेकिन इसका उपयोग किसी व्यक्ति के पवित्र निजी क्षेत्र के हनन के लिए भी किया जा सकता है.'
पीठ ने कहा, 'सभ्य लोकतांत्रिक समाज के सदस्य निजता की सुरक्षा की जायज अपेक्षा रखते हैं. निजता (की सुरक्षा) केवल पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए चिंता की बात नहीं है. भारत के हर नागरिक की निजता के हनन से रक्षा की जानी चाहिए. यही अपेक्षा हमें अपनी पसंद और स्वतंत्रता का इस्तेमाल करने में सक्षम बनाती है.'
निजता के अधिकार
शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐतिहासिक रूप से, निजता के अधिकार लोगों पर केंद्रित होने के बजाय 'संपत्ति केंद्रित' रहे हैं और यह दृष्टिकोण अमेरिका और इंग्लैंड दोनों में देखा गया था. पीठ ने कहा, '1604 के सेमायने के ऐतिहासिक मामले में, यह कहा गया था कि 'हर आदमी का घर उसका महल होता है'. इसने गैरकानूनी वारंट और तलाशी से लोगों को बचाने वाले कानून को विकसित किए जाने की शुरुआत की.'
पीठ ने चैथम के अर्ल (राजा) एवं ब्रितानी नेता विलियम पिट का हवाला देते हुए कहा, 'सबसे गरीब आदमी अपनी कुटिया में क्राउन (राजा) की सभी ताकतों की अवहेलना कर सकता है. उसकी कुटिया कमजोर हो सकती है -उसकी छत हिल सकती है - हवा इसे उड़ा कर ले जा सकती है - उसमें तूफान आ सकता है, बारिश का पानी आ सकता है- लेकिन इंग्लैंड का राजा उसमें प्रवेश नहीं कर सकता. उसकी संपूर्ण ताकत भी बर्बाद हो चुके मकान की दहलीज को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकती.'
'अकेले रहने' के अधिकार की रक्षा
पीठ ने 1890 में अमेरिका के दिवंगत अटॉर्नी सैमुअल वारेन और अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के दिवंगत सदस्य लुई ब्रैंडिस द्वारा लिखे गए 'निजता का अधिकार' लेख का जिक्र करते हुए कहा, 'हाल के आविष्कार और व्यावसायिक तरीके उस अगले कदम पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता पर बल देते हैं, जो व्यक्ति की सुरक्षा के लिए और जैसा कि (अमेरिका के) न्यायाधीश कूली ने कहा था, व्यक्ति के 'अकेले रहने' के अधिकार की रक्षा के लिए उठाया जाना चाहिए.'
शीर्ष अदालत ने कहा कि अमेरिका के संविधान में चौथे संशोधन और इंग्लैंड में गोपनीयता संबंधी अधिकारों के 'संपत्ति केंद्रित' मूल के विपरीत भारत में निजता के अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त 'जीवन के अधिकार' के दायरे में आते हैं. पीठ ने कहा, 'जब इस न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत 'जीवन' के अर्थ की व्याख्या की, तो उसने इसे रूढ़ीवादी तरीके से प्रतिबंधित नहीं किया. भारत में जीवन के अधिकार को एक विस्तारित अर्थ दिया गया है. वह स्वीकार करता है कि 'जीवन' का अर्थ पशुओं की भांति मात्र जीने से नहीं है, बल्कि एक निश्चित गुणवत्तापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने से है.'
समिति में कौन सदस्य होंगे
बता दें कि उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन (Justice R V Raveendran) तकनीकी पैनल की जाने वाली जांच के लिए निगरानी करेंगे. पैनल में साइबर सुरक्षा एवं डिजिटल फॉरेंसिक क्षेत्र के विशेषज्ञ होंगे. न्यायमूर्ति रवींद्रन उन पीठों का हिस्सा रहे हैं जिन्होंने केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण को लेकर विवाद, 1993 के मुंबई श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट और प्राकृतिक गैस को लेकर कृष्णा-गोदावरी नदीघाटी विवाद जैसे बड़े मामलों में सुनवाई की.