नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को मान्यता देने की मांग करने वाले याचिकाकर्ताओं से पूछा कि अदालत समान लिंग वाले जोड़ों के लिए रूपरेखा निर्धारित करने में कितनी दूर तक जा सकती है, क्योंकि ऐसे कई कानून हैं जो महिला और पुरुष के बीच अंतर करते हैं या उनके मिलन और विवाह के बारे में बात करते हैं. तदनुसार दोनों के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं.
संविधान पीठ का नेतृत्व कर रहे सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, 'आप सही कह रहे हैं कि विवाह अधिकारों का एक गुलदस्ता है, यह ग्रेच्युटी, पेंशन पर नहीं रुकता है ... सबसे महत्वपूर्ण है मृत्यु पर जीवनसाथी का अधिकार है ... अगर हम SMA (स्पेशल मैरिज एक्ट) के तहत घोषणा करते हैं कि आदमी शब्द को प्रतिस्थापित करता है .... क्या हम आज उस पर रुक सकते हैं और कह सकते हैं कि हम यहां तक जाएंगे और आगे नहीं. क्या होगा अगर दो हिंदू पुरुष या महिला शादी करते हैं? फिर क्या अदालत यह कह सकती है कि हम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के कारण इसमें नहीं पड़ेंगे... एक पुरुष या महिला की मृत्यु होने पर अलग-अलग उत्तराधिकार होता है... तो जब तक आप व्यापक मुद्दों से निपट रहे हैं, वह वैचारिक रूप से है कोर्ट के लिए आसान इलाका है, लेकिन जब आप इलाके को पार करते हैं तो कोई रोक नहीं है.'
एक याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी ने कहा, 'घोषणा पहला कदम है..दूसरा कदम कुछ उदाहरण होंगे जो हमने प्रदान किए हैं...फिर बाकी का पालन करेंगे.'
जस्टिस रवींद्र भट ने कानून बनाने में संसद और न्यायपालिका की शक्ति के संदर्भ में कहा, 'बस एक स्पॉइलर खेलने के लिए... हम कितनी बार फॉलो अप की भूमिका निभाते हैं? हम कितने और मुकदमों का सामना करने जा रहे हैं? तो आखिर में सवाल यह है कि क्या यही हमारा काम है.' जस्टिस एसके कौल ने कहा कि शादी की स्थिति पर फैसले से परे, अगर बारीकियों पर गौर किया जाए तो यह एक 'जटिल अभ्यास' बन जाता है.
याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल ने कहा, 'यह सब या कुछ नहीं जैसा नहीं हो सकता... पहले कदम उठाना होगा और उसके बाद दूसरा कदम उठाना होगा... 1950 के संविधान में लैंगिक समानता की गारंटी दी गई थी लेकिन क्या आज हम भेदभाव का सामना करते हुए अदालत नहीं आ रहे हैं... यही प्रक्रिया है.'
अधिवक्ता गुरुस्वामी ने कहा, 'एक कानूनी और संवैधानिक यात्रा है, कोई सवाल ही नहीं है.' अधिवक्ता कृपाल ने कहा कि सरकार के यह कहने से बड़ा कोई संवैधानिक गान नहीं है कि छोटी-मोटी बातों में पड़ना मुश्किल है, इसलिए हम उन्हें अधिकार नहीं दे सकते. उन्होंने सवाल किया कि क्या अदालत लोगों को संसद की दया पर छोड़ सकती है जिसने पिछले 75 वर्षों में समलैंगिक जोड़े के लिए कानून नहीं बनाया है.
सीनियर एडवोकेट गुरुस्वामी ने तर्क दिया कि एलजीबीटीक्यू समुदाय भी मूल संरचना सिद्धांत के तहत आएगा, अनुच्छेद 32 के तहत उनका भी मौलिक अधिकार है और वे आज कुछ विशेष नहीं मांग रहे हैं. उन्होंने कहा कि खुद सहित कई वकीलों ने कानूनों की व्यवहार्यता को प्रस्तुत किया है, उनकी परिभाषाओं का विस्तार किया है और इसे एक तर्कसंगत रूप में पढ़ा है.