मुंबई:सामना के संपादकीय मेंप्रश्न पूछा गया किनासिक के 94वें साहित्य सम्मेलन ने मराठी भाषा को क्या दिया? इसके अलावा देश और समाज को क्या दिया? यह सवाल है. इसके बाद कहा गया कि महाराष्ट्र ने हमेशा देश को देने की भूमिका निभाई. इसमें मराठी भाषा का भी योगदान है. नासिक में अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए, वरिष्ठ गीतकार जावेद अख्तर ने लेखकों से आह्वान किया है कि 'आत्मसमर्पण मत करो, घुटने मत टेको.'
मराठी साहित्य सम्मेलन के मंच से जावेद अख्तर ने पूरे देश को ये संदेश दिया. जावेद अख्तर एक वाकपटु वक्ता और कवि हैं. उनके लेखन की आग अमिताभ जैसे कलाकारों के मुंह से निकली. देश वर्तमान में अघोषित प्रतिबंधों के दौर से गुजर रहा है. लेखक और वक्ता दबाव में हैं, जबकि कुछ लोग इस दबावतंत्र की वाहवाही करने में ही धन्यता मान रहे हैं. यह डर है. उनको ध्यान में रखते हुए जावेद ने कहा, ‘जो बात कहने से डरते हैं सब, तू वो बात लिख. इतनी अंधेरी थी न पहले कभी रात लिख.' जावेद अख्तर द्वारा नासिक की भूमि से लेखकों से किया गया यह आह्वान महत्वपूर्ण है. सौ दिन बकरी की तरह जीने के बजाय एक दिन बाघ की तरह जीना ही उनके भाषण का मूल है.
नासिक के कवि कुसुमाग्रज का शहर होने के साथ ही क्रांतिकारी कवि-लेखक विनायक दामोदर सावरकर की भूमि भी है. साहित्य सम्मेलन नगरी को कुसुमाग्रज का नाम दिया गया उसी तरह एक प्रमुख हॉल या प्रवेश द्वार को सावरकर का नाम देकर उन्हें मानवंदना दी जा सकती थी, लेकिन सावरकर को थोड़ा दूर ही रखा गया. अर्थात, ‘शरणागत न होइए’ ये अख्तर का संदेश सावरकर की भूमिका से मेल खाता है. स्वतंत्रता-पूर्व काल में सावरकर के अंदर के लेखक ने स्पष्ट लिखा था कि ‘कलम तोड़ो और हाथ में बंदूक उठा लो!’
लेकिन सावरकर के अलावा किसी ने बंदूक नहीं उठाई. जब लिखने और बोलने पर प्रतिबंध लगता है, तब लेखक मंडली सबसे पहले बचाव मुद्रा में आ जाती है और हम अपनी सीमा में हैं व तटस्थ हैं, ऐसा दिखाते हैं. अख्तर ने साहित्यकारों की इसी नीति पर प्रहार किया है. पहले खरी-खरी बोलनेवालों को खतरनाक कहा जाता था. अब उन्हें देशद्रोही ठहराया जाता है. फिर भी हमें बोलते रहना चाहिए, ऐसा अख्तर कहते हैं. ‘लोग आपस में सहजता से बात कर सकें इसलिए भाषा का निर्माण हुआ, लेकिन भाषा ही आज के संवाद की दीवार बन गई है.
हम भूल गए हैं कि भाषा से परे भी एक दुनिया है. अख्तर आगे कहते हैं कि लोकतंत्र में जैसे सरकार और राजनेता अहम हैं, उसी तरह साहित्यकार और आम जनता को बोलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए. सामाजिक मुद्दों पर लड़ने का बल जाति-धर्म-प्रांत के भेदभाव से नहीं बल्कि भारतीयों की एकता से मिलता है. साहित्यकार, आम जनता के प्रश्नों को प्रस्तुत नहीं करेंगे तो आपकी लेखनी किस काम की? यह सवाल उनसे पूछना चाहिए, ऐसा अख्तर कहते हैं और मौजूदा स्थिति को लेकर उन्होंने लेखकों के कान मरोड़े हैं.