हैदराबाद : पिछले कई सालों में महिला मतदाताओं की संख्या तेजी से बढ़ी है. चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 67.2 फीसदी पुरुष ने 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट डाला था, जबकि महिलाओं की भागीदारी 67 फीसदी थी. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव और तमिलनाडु के 2016 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने निर्णायक भूमिका निभाई थी. बिहार में नीतीश कुमार और तमिलनाडु में जयललिता के पक्ष में स्थिति बदल गई. लोकसभा चुनाव में दो-तिहाई राज्यों में पुरुष मतदाताओं से अधिक महिला मतदाताओं ने भागीदारी की थी.
2004 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं के मुकाबले पुरुष मतदाता 8.2 फीसदी अधिक थे. 2014 आते-आते यह अंतर मात्र 1.8 फीसदी का रह गया. 2019 में यह करीब-करीब बराबर हो गया. शिक्षा का बढ़ता प्रसार और वित्तीय स्वतंत्रता की वजह से महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता काफी बढ़ी. चुनाव के दौरान महिला स्वंय सहायता समूह की भूमिका और पोलिंग बूथ पर महिलाओं के लिए बेहतर व्यवस्थाओं की बदौलत उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को नए पंख मिलने लगे.
इस पृष्ठभूमि में पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों पर नजर दौड़ाइए. पांच में से सिर्फ एक राज्य में महिला मुख्यमंत्री हैं. पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी. 2019 को लोकसभा चुनाव में केरल और प. बंगाल में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले अधिक थी. अब सवाल ये है कि क्या उसी पैटर्न पर मतदान हुआ, तो परिणाम वही रहेंगे, या नतीजे बदल सकते हैं. बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ में चाहे जैसा भी माहौल हो, महिला मतदाताओं ने उनके पक्ष में मत किया. खासकर वैसी महिलाएं जो सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ उठाती रहीं हैं. नीतीश को इसका फायदा भी मिला. नीतीश ने 2015 में शराबबंदी को लागू किया था. बिहार की तरह तमिलनाडु और प. बंगाल में भी कई सामाजिक योजनाएं लागू की गईं हैं. जाहिर है, इसका क्या असर होगा, इसके लिए इंतजार करना होगा.
मतदाताओं की भागीदारी के लिहाज से देखें तो अब महिला और पुरुष बराबरी पर आ गए हैं. लेकिन राजनीति में उनकी भागीदारी बहुत कम है. ग्राम पंचायत में या लोकसभा में. महिलाओं की भागीदारी बहुत अधिक नहीं है. राजनीतिक क्रियाविधियों में भी महिलाओं को बहुत अधिक जिम्मेदारी नहीं दी जा रही है. प्रचार के दौरान भी उन्हें सीमित जवाबदेही मिलती हुई देखा जा सकता है. कुछ उपलब्धियों को छोड़ दें, तो राजनीति महिलाओं के लिए अब भी कठिन क्षेत्र है. पितृसत्तात्मक सोच सबसे बड़ी बाधा है. परिवार और घर की जिम्मेदारी निभाना भी बहुत बड़ा फैक्टर है. कई बार तो देखा गया है कि पंचायत और स्थानीय स्तर पर जीतने वाली महिलाओं की जिम्मेदारियां उनके घर के पुरुष सदस्य निभाते हैं. हकीकत ये है कि गांव का नेतृत्व महिलाएं भी उनती ही दक्षता से कर सकती हैं. भारत में शीर्ष नेतृत्व पर महिला (पीएम पद पर) काफी पहले ही बैठ चुकी हैं. श्रीलंका और बांग्लादेश का भी उदाहरण हमारे सामने है.