हैदराबाद : बजट चर्चा के दौरान 13 फरवरी को लोक सभा में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि 2022 तक घाटी के सभी विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से संगठित किया जाएगा.
पुस्तक राहुल पंडित: हमारे चंद्रमा में रक्त के थक्के हैं के अनुसार 1941 की जनगणना में कश्मीरी पंडितों ने कश्मीर घाटी की जनसंख्या का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा गठित किया. 1981 तक वे जनसंख्या में चार प्रतिशत तक कम हो गए.
कश्मीरी पंडित कौन हैं: कश्मीरी पंडित हिंदू अल्पसंख्यक हैं- मुख्य रूप से ब्राह्मण और कश्मीर के शैव (Shaivism) धर्म के अनुयायी.
कश्मीर पंडितों के पलायन की घटनाएं
वर्ष 1984 :जम्मू-कश्मीर में 1984 में फारूक अब्दुल्ला (Farooq Abdullah) की सरकार उनके साले गुलाम मोहम्मद शाह द्वारा छीनी गई थी, जिन्हें गुलशाह (Gulshah) के नाम से भी जाना जाता है. गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गए. इस दौरान खुद को सही ठहराने के लिए उन्होंने कई खतरनाक निर्णय भी लिए, इनमें कुछ निर्णय ऐसे भी थे, जिनसे राज्य में हिंसा भी भड़की.
फरवरी 1986 : फरवरी माह में राज्य में साम्प्रदायिक दंगों की स्थिति बन चुकी थी. इस दौरान दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग इलाके में पंडितों का काफी विरोध हुआ. कथित तौर पर राज्य में भड़के दंगों में कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया. उनके घरों में घुसकर उनके साथ अभद्रता की गई, साथ ही महिलाओं के साथ गलत व्यवहार किया गया. इस दौरान पंडितों के धार्मिक स्थलों पर भी तोड़फोड़ और आगजनी की खबरें सामने आई थीं.
वर्ष 1987:1987 के चुनाव से पहले राजीव गांधी और फारुख अब्दुल्ला के बीच एक समझौता हुआ. इसके बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा. हालांकि, कट्टरपंथियों ने चुनाव में धांधली का आरोप लगाया.
जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) फारूक अब्दुल्ला की सरकार के तहत अधिक सक्रिय हो गया. कथित तौर पर इस दौरान धार्मिक विवाद और सांप्रदायिक घृणा की शुरुआत हो चुकी थी.
जुलाई 1988:श्रीनगर में आगजनी के चलते लोगों में डर का स्थिति उत्पन्न हो गई थी. कश्मीरी पंडितों का बढ़चढ़ कर विरोध हुआ.
सितंबर 1989:भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को उनके ही घर के सामने कुछ हथियारबंद लोगों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी.
वर्ष 1990: वर्ष 1990 में फारूक अब्दुल्ला के इस्तीफे के बाद, राष्ट्रपति शासन लागू हुआ. इस दौरान कई तरह के राजनीतिक हंगामे हुए, हिंदू-विरोधी आंदोलन और पलायन को गति मिली.
जनवरी 1990:1990 को वो दिन माना जाता है, जब कश्मीर के पंडितों को अपना घर छोड़ने का फरमान जारी हुआ था, क्योंकि जनवरी 1990 तक यहां पंडितों का विरोध और उग्र हो गया था. सड़कों पर प्रदर्शन होने लगे. घाटी में बड़े पैमाने पर भारत विरोधी नारे लग रहे थे. इस दौरान सरकार के भीतर भी असंतोष बढ़ गया था. साल के अंत तक लगभग 3,50,000 पंडित घाटी से पलायन कर चुके थे.
मार्च 1997:घाटी का यह साल नरसंहार की भेंट चढ़ा. आतंकवादियों ने संग्रामपोरा (Sangrampora) गांव में सात कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से बाहर निकाल कर हत्या कर दी.
जनवरी 1998:वंधामा गांव (Wandhama village) में 23 कश्मीर पंडितों (जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे) की गोली मारकर हत्या कर दी गई.