नई दिल्ली: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की कल्याणकारी प्रकृति को जाति के आधार पर विभाजित नहीं किया जाना चाहिए. संसदीय समिति ने ग्रामीण विकास मंत्रालय को निधि जारी करते समय जाति के आधार पर किसी भी प्रकार के अलगाव के बिना एकल निधि अंतरण आदेश बहाल करने का सुझाव दिया है.
दरअसल 2022-23 में मनरेगा (MGNREGA) के तहत नियोजित मजदूरी के भुगतान से संबंधित अनुदान मांगों की जांच के दौरान चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है. मनरेगा के लाभार्थियों को जाति के आधार पर मजदूरी का भुगतान करने की प्रथा थी. इसमें एससी और एसटी से लेकर शेष अन्य को प्राथमिकता के आधार पर भुगतान किया जाता है. संसदीय समिति ने ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर ऐसे खुलासे पर हैरानी व्यक्त की है, जहां मनरेगा भुगतान जारी करने के लिए जाति आधारित व्यवस्था लागू की गई है.
सांसद प्रतापराव जाधव (Lok Sabha MP Prataprao Jadhav) की अध्यक्षता वाली समिति ने कहा, 'इस तरह के विचार के पीछे क्या तर्क है, समिति इसे समझ नहीं पाई. मनरेगा योजना 2005 से शुरू हुई है. इस तरह की गैरबराबरी का अधिनियम में कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है.'
समिति ने कहा कि समाज के विभिन्न वर्गों में मनरेगा के लाभार्थियों में केवल एक चीज समान है कि वे गरीब हैं, निराश्रित हैं और उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है, लेकिन उनके अस्तित्व के मूल स्रोत को देखने के लिए मनरेगा के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है. इस प्रकार, वे आर्थिक रूप से कमजोर आबादी हैं और किसी भी धर्म/जाति से आ सकते हैं. ऐसी भुगतान प्रणाली का निर्माण जिसमें एक विशिष्ट समुदाय को केवल जाति के आधार पर तरजीह दी जाती है, इससे लाभार्थियों के बीच केवल दरार ही पैदा होगी.
समिति ने पिछले सप्ताह लोकसभा में प्रस्तुत अपनी 26वीं रिपोर्ट में कहा, 2021-22 से शुरू हुई इस प्रथा को तत्काल सुधारने की आवश्यकता है. इसे कतई बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. योजना के तहत काम करने वाले प्रत्येक श्रमिक को मनरेगा द्वारा निर्धारित समय-सीमा के भीतर भुगतान मिले. मनरेगा के तहत प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिनों का रोजगार दिया जाता है.