नई दिल्ली :सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि छूट बोर्ड को पूरी तरह से पीठासीन न्यायाधीश या पुलिस द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट पर भरोसा नहीं करना चाहिए. न्यायमूर्ति एस. रवीन्द्र भट और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा कि बोर्ड (छूट बोर्ड) को पूरी तरह से पीठासीन न्यायाधीश या पुलिस द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट पर निर्भर नहीं रहना चाहिए.
बेंच ने कहा कि उपयुक्त सरकार को समय से पहले रिहाई के लिए आवेदन करने वाले दोषी से बातचीत/साक्षात्कार के बाद एक योग्य मनोवैज्ञानिक द्वारा समसामयिक रूप से तैयार की गई रिपोर्ट से लाभ मिलेगा, साथ ही यह न्याय के उद्देश्यों की भी पूर्ति करेगा.
कोर्ट ने कहा कि सरकार दोषी की उम्र, स्वास्थ्य की स्थिति, पारिवारिक रिश्ते और पुन: एकीकरण की संभावना, अर्जित छूट की सीमा, और दोषसिद्धि के बाद के आचरण सहित अन्य बिंदुओं पर विचार कर सकती है. उसे ये भी देखना चाहिए कि क्या दोषी ने कोई शैक्षणिक योग्यता प्राप्त की है. हिरासत में रहते हुए उसके द्वारा दी गई स्वयंसेवी सेवाएं, कार्य, जेल आचरण आदि को भी देखा जाना चाहिए.
पीठ की ओर से फैसला लिखने वाले न्यायमूर्ति भट ने कहा कि अगर ऐसा नहीं होता है तो इससे कैदियों में निराशा और हताशा की भावना पैदा हो सकती है, जो खुद को सुधरा हुआ मान सकते हैं - लेकिन जेल में निंदा की जाती रहेगी.
ये है मामला :शीर्ष अदालत ने राजो नामक व्यक्ति की याचिका पर विचार करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसकी समयपूर्व रिहाई के आवेदन को रिमिशन बोर्ड ने दो बार खारिज कर दिया था. याचिकाकर्ता वर्तमान में तीन व्यक्तियों की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा काट रहा है - जिनमें से दो पुलिस कर्मी (दफादार) थे. 24 मई 2001 को उसे तीन अन्य सह-अभियुक्तों के साथ दोषी ठहराया गया था. याचिकाकर्ता ने पटना उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया, जिसने अभियोजन न चलाने की उसकी याचिका खारिज कर दी थी.
ये की टिप्पणी :शीर्ष अदालत ने कहा कि रिकॉर्ड, स्पष्ट रूप से इस ओर इशारा करता है कि याचिकाकर्ता के आवेदन को अस्वीकार करने का कारण, पहले दौर में पीठासीन न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत प्रतिकूल रिपोर्ट है, जिस पर तत्कालीन पीठासीन न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में लापरवाही से भरोसा किया गया था और दोहराया गया था.