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रेलवे इंजीनियरों ने कबाड़ से बनाया यंत्र, ब्रेक बाइंडिंग की समस्या का समाधान

कोरोना महामारी और लॉकडाउन से रेलवे की कमाई पर बुरा असर पड़ा है. रेलवे की माल ढुलाई से होने वाले राजस्व में भी कमी आई. जिसके कारण रेलवे पर वित्तीय संकट मंडराने लगा है, लेकिन इस वित्तीय खींचतान के बीच धनबाद रेल मंडल के कोचिंग डिपो से रेलवे के लिए अच्छी खबर आई है.

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ब्रेक बाइंडिंग

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Published : Dec 26, 2020, 7:54 AM IST

धनबाद : झारखंड के धनबाद जिले के कोचिंग डिपो के कुछ इंजीनियरों ने जुगाड़ तंत्र से लाखों के यंत्र का विकल्प ढूंढ़ निकाला है. धनबाद कोचिंग डिपो के अधिकारी मुकुंद बिहारी, इंजीनियर अभिनव राय और सिंक लाइन इंचार्ज आरके दत्ता की पूरी टीम ने कोचिंग डिपो में पड़े कबाड़ से एक गैजेट तैयार किया है, जिसका नाम ओवरचार्ज न्यूमेटिक गैजेट है.

कबाड़ से बनाया गैजेट
इस गैजेट को कोचिंग डिपो में पड़े कबाड़ से बनाया गया है. इस गैजेट को बहुत ही कम खर्च में तैयार किया गया है. आये दिन ट्रेनों में ब्रेक बाइंडिंग की आने वाले समस्या से इस गैजेट के माध्यम से उसे दूर किया जा रहा है. अक्सर चलती ट्रेन में ब्रेक बाइंडिंग की समस्या खड़ी हो जाती थी, जिसके कारण ट्रेन को खड़ा कर सभी 24 कोच की बारी-बारी से जांच की जाती थी. इस कार्य के लिए करीब 20 मिनट का समय लगता था, लेकिन इस गैजेट के उपयोग से यह समस्या अब खत्म हो गई. कोच के पटरियों पर दौड़ने से पहले ही इस गैजेट के माध्यम से उसकी जांच की जाती है, जिसके बाद चलती ट्रेन में भी ब्रेक बाइंडिंग की समस्या खड़ी नहीं होती है.

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कोचिंग डिपो की सकारात्मक पहल
रेलवे हाजीपुर हेडक्वॉर्टर से बड़े अधिकारियों के निर्देश पर इसका आविष्कार किया गया है. ब्रेक बाइंडिंग की समस्या से निजात दिलाने के लिए हेडक्वॉर्टर के अधिकारियों ने सभी पांचों रेल मंडल को निर्देशित किया था, जिस पर धनबाद रेल मंडल के धनबाद कोचिंग डिपो में इस पर सकारात्मक पहल की गई. इस गैजेट के बनाने के पहले ब्रेक गियर मॉडल तैयार किया. उसके पूरे मैकेनिज्म को बनाया गया. कोच में ब्रेक लगने से लेकर सभी तरह की प्रकिया इस गियर मॉडल में है. पहले इस मॉडल का प्रैक्टिस किया गया. पूरी टीम अब इस गैजेट के बनने पर काफी गौरवान्वित महसूस कर रही है.

जीरो खर्च पर बनाया गया गैजेट
धनबाद कोचिंग डिपो के अधिकारी मुकुंद बिहारी ने कहा, ब्रेक बाइंडिंग की समस्या पर नियंत्रण पाने के लिए डीवी टेस्ट बेंच की व्यवस्था करनी पड़ती थी, जिसका खर्च 15 से 20 लाख रुपए पड़ता थी. इसे आउटसोर्स पर किया जाता था. रेलवे को इसके लिए जगह उपलब्ध कराना पड़ता था, लेकिन यह गैजेट जीरो खर्च पर बनाया गया है.

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