लखनऊ :क्या वरुण गांधी कांग्रेस में शामिल होंगे, क्या उनकी बहन प्रियंका से नजदीकियां बढ़ी हैं. क्या वरुण पिछले सभी गिले-शिकवे को भुलाकर घर वापसी की सोच रहे हैं. दरअसल, ये सवाल हम नहीं कर रहे, बल्कि इन दिनों सियासी गलियारों में इन्हीं सवालों के मध्य यूपी की सियासत घूम रही है. यानी पीलीभीत के सांसद वरुण गांधी अब चर्चा के केंद्र में हैं. असल में भाजपा की निर्धारित नीतियों को दरकिनार कर वरुण गांधी ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.
पहले किसान आंदोलन को लेकर केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ सख्त रूख अख्तियार किए तो वहीं, लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद से ही सूबे की योगी सरकार पर लगातार ट्विटर के जरिए हमले कर रहे हैं. लेकिन कुछ मजूबरी है कि भाजपा गले की फांस बने वरुण गांधी के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं कर पा रही है.
इन सब के बीच सूबे की कांग्रेस प्रभारी व राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा इस बात को भलीभांति जानती हैं कि अगर सूबे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कद का कोई नेता है तो वो हैं वरुण गांधी. ऐसे में अब प्रियंका किसी भी कीमत पर अपने छोटे भाई वरुण गांधी की घर वापसी चाहती हैं.
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साथ ही उन्हें यह भी पता है कि अगर वरुण कांग्रेस में आते हैं तो पार्टी को सूबे में एक दमदार चेहरा मिल जाएगा. जिसे बतौर सीएम फेस प्रोजेक्ट किया जा सकता है. वहीं, हाल ही में वरुण गांधी के बदले तेवर और लगातार जारी हमलों के बीच भाजपा केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें और उनकी सांसद मां मेनका गांधी को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सूची से बाहर कर दिया था.
हालांकि, पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सूची से बाहर किए जाने के सवाल पर वरुण गांधी ने कहा था कि कार्यकारिणी से हटाए जाने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वह पिछले पांच सालों से इसकी बैठकों में शामिल भी नहीं हो रहे थे.
जब टूटा सपना तो फिर क्या...
वहीं, 2019 में वरुण गांधी भाजपा की टिकट पर लगातार तीसरी बार सांसद चुने गए थे. काफी समय से वह धैर्य के साथ इस बात की प्रतीक्षा कर रहे थे कि एक न एक दिन उन्हें केंद्रीय मंत्रीमंडल में शामिल किया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बीते जुलाई माह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रीमंडल का पुनर्गठन किया, कई नए चेहरों को जगह दी गई पर वरुण गांधी को दरकिनार कर दिया गया.
इस कारण भाजपा ने वरुण को नहीं बनाया मंत्री
2013 में भाजपा ने वरुण गांधी को राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया था और 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें पीलीभीत की जगह उनके स्वर्गीय पिता संजय गांधी के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से लगे सुल्तानपुर से चुनावी मैदान में उतरा. भाजपा चाहती थी कि वे अमेठी और रायबरेली में पार्टी के लिए प्राचर करें. भाजपा ने मेनका गांधी और वरुण गांधी को पार्टी में शामिल ही इस लिए किया था कि उनके जरिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रभाव को कम किया जा सके. पर वरुण ने ताई सोनिया गांधी और बड़े भाई राहुल गांधी के खिलाफ प्रचार करने से साफ इनकार कर दिया. नतीजतन थोड़े समय बाद उन्हें पार्टी के महासचिव पद से भी हटा दिया गया.
हालांकि, मेनका गांधी चाहती थीं कि उनकी जगह उनके बेटे को केंद्रीय मंत्रीमंडल में शामिल किया जाए पर दाल गली नहीं. उल्टे 2019 में जब लगातार दूसरी बार केंद्र में भाजपा की सरकार बनी तो मेनका गांधी का उनमें नाम नहीं था. वरुण इसी आस में थे कि मां की जगह उन्हें मंत्री बनाया जाएगा, पर जब जुलाई में मोदी सरकार का पुनर्गठन हुआ और वरुण का नाम नहीं आया तो उनका दिल भाजपा से भर गया.
इधर, जब 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवाणी की जोड़ी ने मेनका गांधी और वरुण गांधी को भाजपा में शामिल किया था तो उन्हें पूरे सम्मान के साथ महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी गई थीं. आगे चलकर वरुण गांधी को पार्टी में महासचिव पद दिया गया, लेकिन उनकी रुचि पार्टी के काम में अधिक नहीं दिखी. उनकी तमन्ना थी कि या तो उन्हें केंद्र में मंत्री या फिर यूपी में मुख्यमंत्री बनाया जाए, जो भाजपा ने नहीं किया.
बहरहाल, अब इतना तो तय हो गया है कि न तो वरुण को भाजपा पसंद है न ही भाजपा को वरुण गांधी. लेकिन आगे देखना होगा कि क्या भाजपा वरुण को पार्टी से निष्कासित करती है या फिर वह स्वयं ही भाजपा को अलविदा कह देते हैं. खैर, जिस तरह से वे इन दिनों राहुल और प्रियंका के सुर में सुर मिला रहे हैं, ऐसे में अगर वे कांग्रेस में शामिल होते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चहिए.
भले ही मेनका गांधी के दिल में व्यक्तिगत कारणों से सोनिया गांधी के प्रति नफरत हो, पर वरुण गांधी का अपनी बहन प्रियंका गांधी से हमेशा से ही मधुर रिश्ता रहा है. वहीं, प्रियंका गांधी अब कांग्रेस की बड़ी नेता बन चुकी हैं और अब गांधी परिवार और कांग्रेस को बस इंतजार है भाजपा और वरुण के बीच चल रहे आंखमिचौली के खेल के खत्म होने का.
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