हैदराबाद : 2020 के लॉकडाउन के दौरान, खम्मम जिले में एक दंपति को प्रीमेच्योर जुड़वां बच्चे हुए. एक साल बाद, माता-पिता को एहसास हुआ कि बच्चों की दृष्टि में कुछ गड़बड़ है. उन्होंने एलवी प्रसाद आई इंस्टीट्यूट से परामर्श किया, जहां डॉक्टरों ने जुड़वा बच्चों को प्रीमैच्योरिटी रेटिनोपैथी (Retinopathy of prematurity) (आरओपी) की पहचान की. यह आंख से संबंधित ऐसी बीमारी है जो मुख्य रूप से प्रीमेच्योर नवजातों और शिशुओं को प्रभावित करता है. डॉक्टरों ने बताया कि यदि जन्म के एक महीने के भीतर आपातकालीन उपचार किया गया होता तो जुड़वा बच्चों को पूरी दृष्टि से देखने का मौका मिलता.
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हालांकि, नेत्र सर्जन शिशुओं की दृष्टि को 30 प्रतिशत तक सुधारने के लिए एक सर्जरी करने में कामयाब रहे. यह सिर्फ एक घटना है. आरओपी एक संभावित रूप से अंधा करने वाली बीमारी है जो 30 से 40 प्रतिशत प्रीमेच्योर बच्चों को प्रभावित कर रही है. उनमें से लगभग 15 प्रतिशत आंखों की रोशनी खो देते हैं या उनके ठीक होने की कोई संभावना नहीं होती है. विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड -19 के दौरान 80-90 प्रतिशत आरओपी मामले बिना इलाज के चले गए. जिनमें से 60 प्रतिशत उपचार की कमी के कारण पूरी तरह से अंधेपन के शिकार हो गए. शेष 40 प्रतिशत आंशिक दृष्टि ही प्राप्त कर पाये. वे केवल बड़ी वस्तुओं को देख सकते हैं. मानवीय चेहरों को नहीं पहचान सकते. यह स्थिति तेलंगाना के लिए अद्वितीय नहीं है, विशेषज्ञों ने कहा, और यह कि महामारी के दौरान दुनिया भर में एक सामान्य घटना रही.
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प्रीमेच्योर जन्म बच्चे के रेटिना रक्त वाहिकाओं के विकास को बाधित करता है या असामान्य वृद्धि का कारण बन सकता है. नतीजतन, रेटिना पर प्रभाव पड़ता है. चूंकि आरओपी के कोई लक्षण नहीं हैं, इसलिए इसका इलाज और मुश्किल हो जाता है. 1000 ग्राम से कम वजन वाले नवजातों का जन्म के 21 से 25 दिनों के भीतर रेटिनोपैथी के लिए परीक्षण किया जाना चाहिए. जबकि 1000 ग्राम से अधिक वजन वाले बच्चों का परीक्षण 30 से 35 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए. यदि तीन से चार महीने के भीतर आंखों की जांच से आरओपी का पता नहीं चलता है, तो स्थायी अंधेपन का खतरा होता है.