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जानिए क्या है पूना पैक्ट और इसकी शर्तें

आज के दिन सन 1932 में बाबासाहेब अंबेडकर और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बीच एक समझौता हुआ था, जिसे आगे चलकर पूना पैक्ट के नाम से जाना गया. आइए जानते हैं क्या है पूना पैक्ट...

पूना पैक्ट
पूना पैक्ट

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Published : Sep 24, 2021, 5:01 AM IST

हैदराबाद : 24 अगस्त यानी आज के दिन ही 1932 में बी. आर अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच एक समझौता हुआ था, जिसे पूऩा पैक्ट के नाम से जाना गया. इस समझौते के जरिए दलितों को कई अधिकार दिये गये. 24 सितंबर की शाम 5 बजे पूना पैक्ट पर 23 लोगों ने दस्तखत किए थे. आइए पूना पैक्ट के बारे में विस्तार से जानते हैं...

पूना पैक्ट की पृष्ठभूमि
समाज के दलित और वंचित तबके के उत्थान के लिए अबंडेकर प्रयासरत थे. उनकी ही कोशिशों का परीणाम था कि 16 अगस्त 1932 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने अलग-अलग जाति और धर्मों के लिए को कम्यूनल अवॉर्ड की घोषणा की. ब्रिटेन सरकार ने कम्यूनल अवॉर्ड को 'दलित वर्गों', मुसलमानों, यूरोपीय, सिखों, एंग्लो-इंडियन और ईसाइयों के लिए अलग निर्वाचक मंडल प्रदान करने के लिए लाया था.

इस फैसले से गांधीजी बहुत दुखी हुए
सरकार के इस फैसले से गांधीजी बहुत दुखी हुए. क्योंकि केंद्रीय व्यवस्थापिका के संगठन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. गांधी का मानना था कि हिंदुओं में फूट डालने के उद्देश्य से दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था की गई थी. इसमें मुस्लिम सांप्रदायिकता को विशेष बढ़ावा दिया गया था. गांधी जी इसे हिंदू समाज को बांटने की साजिश के तौर पर देख रहे थे.

गांधी जी ने 18 अगस्त 1932 को मैकडोनाल्ड को एक पत्र लिखकर इस निर्णय का विरोध किया. उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की प्रणाली समाप्त नहीं की गई तो वे 20 सितंबर 1932 से आमरण अनशन शुरू कर देंगे. लेकिन सरकार ने इसे नजरंदाज किया. सरकार ने गांधी जी पर आरोप लगाया कि वह दलितों का उत्थान नहीं चाहते. दलितों के नेता बी आर अंबेडकर भी सांप्रदायिक निर्णय के पक्ष में थे, क्योंकि अबंडेकर का मानना था कि अलग निर्वाचन मंडल जैसे राजनीतिक समाधान दलित वर्गों के उत्थान के लिए काम करेंगे. इसके खिलाफ गांधी जी 20 सितंबर 1932 को यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया.

आखिरकार गांधीजी के आमरण-अनशन से मजबूर होकर अंबेडकर को झुकना पड़ा. और 24 अगस्त,1932 को अबंडेकर और महात्मा गांधी के बीच एक समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है. इस समझौते से दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट का अधिकार खत्म हो गया. पूना पैक्ट पर महात्मा गांधी और अंबेडकर के अलावा मदन मोहन मालवीय ने हस्ताक्षर किये थे.

पूना पैक्ट का महत्व
दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व : इस समझौते से दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट का अधिकार खत्म हो गया. उसके बदले में प्रांतीय विधानमंडलों में दलितों की आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 कर दी गई और केंद्रीय विधायिका में कुल सीटों का 18 फीसदी करने का प्रावधान किया गया. महात्मा गांधी के साथ हुए समझौते में अंबेडकर ने दलित वर्ग के उम्मीदवारों को एक संयुक्त निर्वाचक मंडल द्वारा चुने जाने के लिए सहमति व्यक्त की.

इसके अलावा पूना समझौते के जरिए अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि नियत की गई और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया गया.

यह भी स्वीकार किया गया कि दलित वर्गों को राजनीतिक वॉइस देने के लिए कुछ ठोस करना होगा. संधि ने दलित वर्गों के उत्थान के लिए पूरे देश को नैतिक रूप से जिम्मेदार बना दिया.

चूंकि पूना पैक्ट में जिन रियायतों पर सहमति हुई थी, वे दुनिया के सबसे बड़े सकारात्मक कार्यक्रम (विधायिका, सार्वजनिक सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण) के अग्रदूत थे, जिन्हें स्वतंत्र भारत में बहुत बाद में शुरू किया गया था.

गांधी और अंबेडकर : दृष्टिकोण में अंतर

  • गांधी और अंबेडकर दोनों ही जाति व्यवस्था से संबंधित कुरीतियों के आलोचक थे. इसके अलावा दोनों नेता दलित वर्गों के उत्थान के लिए कटिबद्ध थे. हालांकि, दोनों नेताओं के दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न थे.
  • अंबेडकर वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन के पक्षधर थे, क्योंकि उनका मनना था कि जब तक समाज में वर्ण व्यवस्था रहेगी, तब तक समाज कुरीतियां विद्यमान रहेंगी.
  • वहीं गांधी जी ने कभी भी वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन के पक्षधर नहीं थे. गांधी जी समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था संबंधी कुरीतियों के उन्मूलन के पक्ष में थे.
  • अंबेडकर के अनुसार, जाति एक राजनीति मुद्दा है, और वह दलित वर्गों के उत्थान के लिए राजनीतिक समाधान चाहते थे. अंबेडकर का कहना था कि एक राजनीतिक लोकत्रंत तब तक अर्थहीन है, जब इसमें दलिल वर्ग की समान भागीदारी न हो.
  • गांधी जी के अनुसार वर्ण व्यवस्था एक समाजिक मुद्दा है. गांधी जी लोगों के दिल-दिमाग को बदलकर इसमें सुधार लाना चाहते थे.
  • अंबेडकर ने अधिकार-आधारित दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी, जबकि गांधी का दृष्टिकोण विश्वास और आध्यात्मिकता के माध्यम से था.
  • इसलिए अंबेडकर ने दलित वर्गों को दलित ( उन्हें राजनीत पहचान दिलाने के लिए) कहा. दूसरी तरफ गांधी ने दलित वर्गों के हरिजन (आध्य़ात्मिकता का आह्वान करके दलित वर्गों की दुर्दशा के लिए उच्च जाति को संवेदनशील बनाने के लिए) कहा.

पूना पैक्ट की शर्तें क्या थीं?

  • इस समझौते से दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट का अधिकार खत्म हो गया. उसके बदले में प्रांतीय विधानमंडलों में दलितों की आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 कर दी गई.
  • प्रांतीय विधायिका में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए सीटों का आरक्षण.
  • किसी निर्वाचन क्षेत्र की सामान्य निर्वाचन सूची में दर्ज सभी दलित सदस्य मिलकर एक निर्वाचक मंडल बनायेंगे. यह निर्वाचक मंडल प्रत्येक आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र के लिए, एक मत प्रणाली के माध्यम से, दलित वर्ग के चार सदस्यों के एक पैनल का चयन करेगा.
  • इन वर्गों का प्रतिनिधित्व संयुक्त निर्वाचक मंडलों और आरक्षित सीटों के मानकों पर आधारित था.
  • दलित वर्ग का मताधिकार लोथियन समिति (भारतीय मताधिकार समिति) की रिपोर्ट के अनुसार होगा.
  • प्रत्येक प्रांत में, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को पर्याप्त शैक्षिक सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए.
  • केंद्रीय और प्रांतीय विधानमंडल दोनों में उम्मीदवारों के पैनल के लिए चुनाव की व्यवस्था 10 साल में समाप्त हो जानी चाहिए, जब तक कि यह आपसी शर्तों पर समाप्त न हो जाए.
  • विधायिका में इन वर्गों के लिए लगभग 19 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जानी थीं.

आज के लिए प्रभाव
भारत के 300 मिलियन अनुसूचित जाति के लोगों के लिए पूना पैक्ट की विरासत आज भी जीवित है, और कई अंबेडकरवादी विद्वानों ने तर्क दिया है कि मौलिक रूप से दलितों के प्रतिनिधित्व के रूप को विकृत किया है. भारत आज संसद और विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित करता है. उदाहरण के लिए, लोकसभा में, 543 सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जाति समुदायों के सदस्यों के लिए आरक्षित हैं.

पूना पैक्ट ने भारतीय राजनीतिक इतिहास और देशभर के लाखों दलितों के भाग्य को बदल दिया है. हालांकि, जाति व्यवस्था जैसी कुरीतियों भारतीय समाज में अभी भी बना हुआ है. इसलिए सही अर्थों में एक समतावादी समाज की स्थापना के लिए गांधीवादी दर्शन और अंबेडकर की सामाजिक लोकतंत्र की धारणा पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है.

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