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प.बंगाल चुनाव: दार्जिलिंग में गर्म हुई सियासत, क्या गुरुंग होंगे गेम चेंजर?

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2020 के लिए बिसात बिछने लगी है. जहां बीजेपी सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस को जड़ से उखाड़ फेंकने में लगी है, वहीं, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने इस बार भारतीय जनता पार्टी से किनारा कर लिया है. इस मामले पर पढ़ें ईटीवी भारत पश्चिम बंगाल के न्यूज कॉर्डिनेटर दीपांकर बोस की स्पेशल रिपोर्ट.

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Published : Nov 27, 2020, 12:01 PM IST

political conundrums heat up darjeeling
पश्चिम बंगाल में बनते-बिगड़ते नए समीकरण

हैदराबाद: अगले साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं. इसके लिए तृणमूल कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक पार्टियां कमर कस रही हैं. वहीं, इस बार पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम भी अपना दमखम दिखा रही है. इसके अलावा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने भी इस बार अपना पाला बदल लिया है.

अचानक प्रकट हुए बिमल गुरुंग

पश्चिम बंगाल में अगले साल के होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले ममता बनर्जी सरकार और राज्य में विपक्षी दल भाजपा का दिमाग खौल रहा है. परेशानी तब शुरू हुई जब पहाड़ी और तराई क्षेत्र में लगभग तीन साल की अपेक्षाकृत शांति के बाद नाटकीय और रहस्यमय अंदाज में पूर्व गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के प्रमुख बिमल गुरुंग फिर से अचानक प्रकट हो गए. गुरुंग वर्ष 2017 में जनता की नजर से तब गायब हो गए थे. जब राज्य पुलिस ने उनके खिलाफ कई मामले दर्ज किए थे. कुछ मामले गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की अन्य गैर-जमानती धाराओं के तहत दर्ज किए गए थे.

ममता को कर रहे समर्थन

गुरुंग पर हिल्स में हिंसक विरोध प्रदर्शन करने और उसका सूत्रधार होने का आरोप लगाया गया था, जिसमें पुलिस गोलीबारी में 11 सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों की और एक सहायक उप-निरीक्षक मौत हो गई. बताया जाता है कि गुरुंग नई दिल्ली, सिक्किम, नेपाल और झारखंड में छिपे थे और इस दौरान शायद ही कभी उन्हें खुलेआम देखा गया. कानूनी रूप से इतर, 21 अक्टूबर को गुरुंग के फिर सामने आने के बाद एक और पेंच आ गया. गुरुंग ने ममता बनर्जी का खुला समर्थन किया और भाजपा की सार्वजनिक तौर पर निंदा की. ये वही भाजपा है जिसका वह 2007 से समर्थन कर रहे थे और वर्ष 2009 के बाद से जिसे लगातार तीन बार दार्जिलिंग लोकसभा सीट जीतने में मदद की है. अब गुरुंग ने भाजपा पर दार्जिलिंग से और अलग राज्य की आकांक्षा से जुड़े अपने वादे को पूरा करने में नाकाम रहने का आरोप लगाया है.

सदी से जारी है अलग गोरखालैंड की मांग

आंध्र प्रदेश को विभाजित करने और तेलंगाना के अलग राज्य बनाने के यूपीए सरकार के फैसले ने एक पेंडोरा बॉक्स खोल दिया था. सीमांध्र, बोडोलैंड, बुंदेलखंड, विदर्भ और हरित प्रदेश बनाने की मांग होने लगी. इन सभी में गोरखालैंड हमेशा अलग रहा. पहला अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण और दूसरा अपने हिंसक अतीत के कारण. उत्तर बंगाल के गोरखाओं के लिए एक अलग राज्य की मांग एक सदी से अधिक पुरानी है. 1907 में दार्जिलिंग हिल्स में असंतोष का पहला स्वर हिल्स एसोसिएशन ऑफ दार्जिलिंग (एचएडी ) के साथ मोर्ले-मिंटो सुधार आयोग को एक ज्ञापन सौंपकर व्यक्त किया गया, जिसमें हिल्स के लिए एक अलग प्रशासनिक व्यवस्था करने की मांग की गई.

किसी ने गंभीरता से नहीं लिया

दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी को मिलाकर एक अलग प्रशासनिक इकाई के गठन के लिए बंगाल सरकार, भारत के सचिव राज्य और वायसराय को 1917 में एक नया ज्ञापन सौंपा गया. इस तरह 1917 में मांग का नवीनीकरण किया गया. अंग्रेजों ने कभी भी याचिकाओं को गंभीरता से नहीं लिया और गोरखाओं ने कभी मांग करना नहीं छोड़ा. नियमित अंतराल पर मांग फिर उठती रही- 1929 में साइमन कमीशन के समक्ष, 1930 और 1941 में भी. जब 1952 में अखिल भारतीय गोरखा लीग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कलिम्पोंग में मुलाकात की तब बंगाल प्रांत से दार्जिलिंग को बाहर निकालने और इसे एक मुख्य आयुक्त के तहत प्रांत बनाने की मांग को हवा मिली. आर्थिक स्वतंत्रता की और गोरखा जातीय समूह के लिए एक बड़ी पहचान के साथ-साथ बंगाल से अलग होने की मांग वाली याचिकाएं और आवेदन कभी नहीं रुके, लेकिन वे सभी अहिंसक थे और तूफान से पहले की शांति थी.

1980 में शुरू हुई खूनी लड़ाई

1980 के दशक में गोरखालैंड के अलग राज्य की मांग को लेकर हिंसा भड़की. दार्जीलिंग की पहाड़ियों से पहली बार 5 अप्रैल 1980 को खून का रिसाव होना शुरू हुआ, क्योंकि सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) ने खूनी अभियान शुरू किया था, जो अंततः 22 अगस्त, 1988 को दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद (डीजीएचसी) नाम से एक स्वशासी निकाय के गठन के साथ समाप्त हुआ. लेकिन इतना होने से पहले केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के जूतों से हिल्स की अस्पष्ट चुप्पी को टुकड़े-टुकड़े कर उड़ा दिया गया और हिंसा में 1,200 लोगों की जान चली गई. सुभाष घीसिंग हिल्स में सर्वोच्च प्राधिकार परिषद और डीजीएचसी के प्रभारी बने, लेकिन पहचान की राजनीति की तरह डीजीएचसी नेतृत्व ने अलग राज्य के मुद्दे को कभी भी पूरी तरह से खत्म नहीं होने दिया. उन्होंने इसे सीमित रखा और 2004 में घीसिंग ने परिषद क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची के तहत लाने की मांग की.

छठी अनुसूची या कुछ और?

संविधान विशेषज्ञों के साथ-साथ राजनीतिक द्रष्टा भी व्यापक रूप से इस बात से सहमत हैं कि संविधान की छठी अनुसूची के प्रावधान गोरखाओं की स्व-शासन की आकांक्षाओं को साकार करने के लिए सबसे अच्छा विकल्प और एक विशेष कदम था. जैसा कि असम में बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद के साथ रहा है. यह उग्रवाद की किसी भी संभावना को कम कर रहा था. गोरखाओं के लिए यह कदम उनकी राज्य की मांग के लिए एक समझौता हो सकता था, लेकिन संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि छठी अनुसूची के तहत शासित क्षेत्र कभी भी बाद में एक पूर्ण राज्य नहीं बन सकता है.

क्या गलत हुआ ?

एक तरफ घीसिंग हिल्स के लिए छठी अनुसूची की मांग कर रहे थे वहीं, दूसरी ओर उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने विरोध करना शुरू कर दिया क्योंकि उन्होंने संवैधानिक प्रावधानों की गलत व्याख्या की थी. आखिरकार केंद्र ने इस विचार को ही खत्म कर दिया. घीसिंग की तानाशाही कार्यशैली, सड़क की निराशाजनक स्थिति, पेयजल की किल्लत और सफाई और जल निकासी व्यवस्था के संकट के साथ जारी गतिरोध ने लोगों का डीजीएचसी से मोहभंग कर दिया. परिषद के कई सदस्यों का घीसिंग के साथ मतभेद शुरू हो गया और वर्ष 2007 तक जीएनएलएफ में विभाजन स्पष्ट हो गया.

बिमल गुरुंग का उदय

जीएनएलएफ के भीतर जो व्यक्ति प्रबल दावेदार के रूप में उभरा वह घीसिंग के भरोसेमंद लेफ्टिनेंट बिमल गुरूंग थे. दिलचस्प बात यह है कि यह कोई राजनीतिक कदम नहीं था जिसने गुरुंग के उत्थान को बढ़ावा दिया बल्कि यह एक टीवी रियलिटी शो था. दार्जिलिंग हिल्स में गुरुंग ने रियलिटी शो ‘इंडियन आइडल’ के लिए एक स्थानीय गायक प्रशांत तमांग के लिए बड़े पैमाने पर समर्थन हासिल किया जिसके बाद लोगों ने गुरुंग के नेतृत्व में रैली की. तमांग ने खिताब जीत लिया. जीएनएलएफ का विभाजन हुआ और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) अस्तित्व में आया जिसके नेता बिमल गुरुंग थे. वही, बिमल गुरुंग जिन्हें डीजीएचसी की अक्षमताओं के लिए घीसिंग के साथ दोषी माना जाना चाहिए था क्योंकि बतौर डीजीएचसी पार्षद गुरुंग भी समान रूप से जिम्मेदार थे. लेकिन, इतिहास में प्रवाह के अपने तरीके हैं.

भाजपा के जसवंत सिंह ने किया था समर्थन

राजनीति में डुबकी लगाते हुए और अपनी राजनीतिक उड़ान को मजबूती देने की पूरी कोशिश में गुरुंग की जीजेएम ने दुस्साहस पूर्ण तरीके से 2009 के आम चुनावों में दार्जिलिंग लोकसभा सीट से भाजपा के जसवंत सिंह का समर्थन किया. सिंह चुनाव जीत गए, लेकिन बीजेपी की अगुआई वाला एनडीए चुनाव हार गया. इसके साथ ही एक अलग गोरखा राज्य के लिए नए सिरे से आकांक्षा को विराम लग गया. पश्चिम बंगाल विधानसभा ने सर्वसम्मति से राज्य के किसी भी विभाजन के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया. विकल्प बहुत कम बचे और विधानसभा चुनाव समाप्त हो गया. गुरुंग जो सबसे अच्छी तरह से जानते थे वह हिंसा थी. उन्होंने हिंसा का सहारा लिया.

हिल्स में फिर शुरू हुई हिंसा

पुलिस ने फरवरी 2011 में आंदोलनकारी जीजेएम समर्थकों पर तब गोलियां चला दीं, जब उन्होंने गोरुबथान से जयगांव तक की लंबे मार्च के बाद गुरुंग के नेतृत्व में जलपाईगुड़ी में प्रवेश करने की कोशिश की. हिल्स में हिंसा भड़क गई और उसके बाद नौ दिन का लंबा बंद रहा. 2011 के विधानसभा चुनावों में बंगाल में वाम मोर्चा सत्ता से बाहर हो गया. ममता बनर्जी चुनाव से पहले राजनीतिक गतिविधियां तेज की हुई थीं. जीजेएम ने हिल्स की दार्जिलिंग, कुर्सियांग और कलिम्पोंग सभी तीन सीटें जीत लीं. जीजेएम ने राज्य विधानसभा में मजबूती से कदम रखा. वर्ष 2011 के जुलाई में जीजेएम, पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र के बीच एक अर्द्ध-स्वायत्त प्रशासनिक निकाय गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) के गठन के लिए समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुआ. राज्य विधानसभा ने सितंबर में जीटीए बिल पारित किया और 2012 में जब जीटीए के पदाधिकारियों के चुनाव हुए. जीजेएम ने 17 जीते और बाकी 28 सीटों को निर्विरोध जीत गया. यह गुरुंग और ममता बनर्जी-सरकार के लिए हनीमून काल था. लेकिन, हमेशा की तरह इसे लंबे समय तक नहीं रहना था.

गुरुंग ने जीटीए से तोड़ा संबंध

ममता के अंदर के राजनेता को पता था कि जीजेएम के जीतने के बाद उन्हें मैदानी और तराई-डोरस क्षेत्र में अपनी पहचान बनानी है या फिर उन्हें और अधिक आधार खोना होगा. हालांकि, विधेयक के अनुसार, कमांड क्षेत्र में सभी स्वास्थ्य और शैक्षणिक संस्थानों में जीटीए का अंतिम अधिकार था. फिर भी ममता ने अपने दो मंत्रियों को उनमें से कुछ के शासी निकाय की देखरेख करने के लिए रख दिया. एक अन्य समानांतर कदम के तहत उन्होंने 15 जातीय समूहों के लिए अलग-अलग विकास बोर्ड बनाए. जिनमें से बहुत सारे नेपाली बोलते हैं. उनके बीच पैसा बांट दिया. उस क्षेत्र में पैसा देना एक नियमित मामला रहा. गुरुंग को यह भी पता था कि ममता की तृणमूल कांग्रेस को दार्जिलिंग हिल्स में जगह मिलेगी तो यह केवल जीजेएम की कीमत पर होगा. हनीमून खत्म हो गया और गुरुंग ने जीटीए से इस्तीफा दे दिया. तीस्ता नदी तब से तेजी से बह रही है. वर्ष 2016 में ममता ने अपने दूसरे कार्यकाल के लिए विधानसभा का चुनाव जीता और तृणमूल जीजेएम की नाक के नीचे से दार्जिलिंग की तलहटी में मिरिक के नगर निकाय चुनावों में विजयी हुई. जब 8 जून, 2017 को ममता ने दार्जिलिंग में राज्य मंत्रिमंडल की बैठक आयोजित करने का फैसला किया तो हंगामा मच गया.

बिमल गुरुंग, भगोड़ा

पश्चिम बंगाल सरकार ने दार्जिलिंग सहित राज्य भर के राजकीय स्कूलों में बंगाली भाषा अनिवार्य करने का प्रस्ताव पेश किया. दार्जिलिंग में अधिकतर लोग नेपाली हैं. इसने उस क्षेत्र में एक चिंगारी के रूप में काम किया और गुरुंग ने हिल्स और तराई-डुआर्स क्षेत्र में अनिश्चितकालीन बंद का आह्वान कर दिया. ममता ने कड़ी कार्रवाई की और अशांति को नियंत्रित करने के लिए अपनी पुलिस को भेजा. परिणामस्वरूप एक खूनी प्रदर्शन और 104 दिनों के बंद का आयोजन हुआ, जिससे सरकारी और निजी दोनों को जान-माल की हानि हुई. विश्व प्रसिद्ध दार्जिलिंग चाय का कीमती दूसरे चरण की पत्ती को बागानों में ही नष्ट कर दिया गया क्योंकि श्रमिकों ने काम करने से मना कर दिया था. गुरुंग और उनके करीबी सहयोगियों के खिलाफ कई मामले दर्ज किए गए, जिससे उन्हें और जीजेएम के अन्य समर्थकों को भागने के लिए मजबूर होना पड़ा. इतिहास ने फिर दोहराया और जीजेएम में फिर विभाजन हुआ. गुरुंग के भरोसेमंद व्यक्ति बिनय तमांग एक गुट के दावेदार के रूप में उभरे. तमांग गुरुंग के एक अन्य पूर्व निष्ठावान साथी अनित थापा के साथ मिलकर अब जीटीए चला रहे हैं. आंदोलन के दौरान तमांग ने ममता सरकार को एक शांति प्रस्ताव दिया. बातचीत हुई और अंततः आंदोलन को समाप्त कर दिया.

अब क्या ?

क्या ममता बनर्जी को समर्थन देने का बिमल गुरुंग का फैसला हिल्स में तृणमूल कांग्रेस के लिए गेम चेंजर होगा? क्या जीजेएम के लड़ रहे गुरुंग और तमांग दोनों गुट संबंधों को सुधारेंगे? क्या गुरुंग और तमांग दोनों गुट साथ आएंगे और जीजेएम टीएमसी के साथ गठबंधन करेंगे? ऐसा हुआ तो गोरखा आकांक्षाओं का क्या होगा और दार्जिलिंग हिल्स और तराई के लोग किसके साथ गठबंधन करेंगे? अब ममता की ओर मुड़ने वाले दोनों धड़ों के साथ क्या जीजेएम का अंत हो जाएगा और हिल्स के लोगों को गोरखालैंड की मांग को फिर से हवा देने के लिए किसी नए गठन की प्रतीक्षा करनी होगी?

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हिल्स में भाजपा के साथ क्या होगा ?

सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग की ओर जाने वाले घुमावदार रास्तों पर कई ऐसे सवाल हैं, लेकिन अधिकांश का अब तक कोई जवाब नहीं है. यह समय के इंतजार का खेल है क्योंकि इस पर ध्यान देना दिलचस्प होगा कि केंद्र की भाजपा सरकार पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले गुरुंग के कदम पर किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करती है. जब फ्रैंकलिन प्रेस्टेज ने हैरिटेज दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के लिए 1879 में पहली बार दार्जिलिंग में रेलवे ट्रैक को बिछाया तो उसने ऊंचाइयों को मापने के लिए ‘जेड-रिवर्स’ नामक एक अनूठी अवधारणा तैयार की. इस प्रक्रिया में ट्रेन पहले एक ढलान पर चढ़ती है. रुकती है और फिर पीछे की ओर एक स्टीपियर की तरफ बढ़ती है और फिर अगले चरण में अपनी आगे की यात्रा फिर से शुरू करते हुए दूसरे छोर तक जाती है. -जेड-रिवर्स ’अवधारणा के पीछे मुख्य विचार है - जब आगे बढ़ना संभव नहीं है, तो पीछे हटना और आगे एक नया रास्ता खोजना हमेशा बेहतर होता है. दार्जिलिंग और तराई के सभी पक्षकारों के लिए यह 'जेड-रिवर्स' की अवधारणा आंख खोलने वाली हो सकती है. यही समय है कि वे समझें कि राजनीति की चाल शायद ही कभी सीधी होती है.

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