शहडोल।मध्यप्रदेश के शहडोल जिला, आदिवासी बाहुल्य जिला है और इस जिले में आज भी कई गांव ऐसे हैं जो अपनी स्पेशलिटी की वजह से देश भर में नाम कमा रहे हैं. ऐसे ही शहडोल जिला मुख्यालय से लगा हुआ एक ऐसा ही आदिवासी बाहुल्य गांव है विचारपुर, जिसे आजकल लोग मिनी ब्राजील के नाम से भी जानते हैं, क्योंकि इस गांव के हर दूसरे घर में आपको फुटबॉल के नेशनल खिलाड़ी मिल जाएंगे. इस गांव की इसी खासियत की वजह से प्रधानमंत्री भी मन की बात में भी इनकी तारीफ कर चुके हैं, साथ ही फुटबॉल कोच रईस अहमद की भी प्रधानमंत्री ने तारीफ की है, जिसने इन खिलाड़ियों को निखारने में करीब ढाई दशक तक जमकर मेहनत की. ईटीवी भारत ने कोच रईस अहमद खान से की है खास बातचीत, जिसने आदिवसियों को सिखाई फुटबॉल की सुपरहिट किक.
सवाल:फुटबॉल ने आपको पूरे देश में सुर्खियों में ला दिया, कैसा महसूस कर रहे हैं?
जवाब: सबसे पहले तो मैं पीएम का बहुत आभारी हूं, शुक्रगुजार हूं, जिन्होंने हमारे छोटे से विचारपुर गांव(शहडोल) का नाम लिया. मेरा नाम लेकर तारीफ की, मैंने जो थोड़ा बहुत काम किया उसका श्रेय दिया. निश्चित ही हम लोगों के लिए ये बहुत सौभाग्य की बात है, 25 साल पहले मैंने इस विचारपुर गांव में शुरुआत की थी, मैं खुद भी एक नेशनल खिलाड़ी था.
सवाल: आप विचारपुर तक कैसे पहुंचे? आप खुद भी एक नेशनल खिलाड़ी थे, इंटरनेशनल लेवल तक नहीं पहुंच पाए, क्या मन में ये कसक भी थी?
जवाब: नेशनल खिलाड़ी था, तो मुझे पता था कि यहां शुरुआत में दिक्कतें कहां आती हैं. मैंने जब कोलकाता से एनआईएस का कोर्स करके आया, तो मैंने उसमें फुटबॉल की बारीकियों को सीखा. मैं समझा कि कोच का कितना बड़ा महत्व होता है खिलाड़ी के लिए, बिना कोच अच्छे खिलाड़ी तैयार करना बहुत मुश्किल होता है, जब मैं ट्रेनिंग करके आया तो मैं शहडोल के ही रेलवे ग्राउंड में फुटबॉल सिखाना बच्चों को शुरू किया और तब मुझे पता चला कि विचारपुर गांव में अच्छे लड़के हैं, जो बेहतरीन फुटबॉल खेलते हैं और उनकी स्टेमिना, फिटनेस भी बहुत अच्छी है, फिजिकली स्ट्रांग हैं, उनमें दमखम तो दिखा, लेकिन वह चीज नहीं दिखी जो आज के दौर में खिलाड़ियों में चल रही है. फुटबॉल की टेक्निक स्किल, फिर मैंने सोचा कि इस गांव के बच्चों को अगर अच्छी ट्रेनिंग दी जाए, तो बच्चे बहुत आगे तक जा सकते हैं.
फिर मैंने छोटे बच्चों का वहां एक ग्रुप तैयार किया और पहले मैं रेलवे ग्राउंड में फुटबॉल सुबह सिखाता था और फिर 3 किलोमीटर दूर विचारपुर गांव जाता था. शाम को और उन बच्चों को सिखाता था, क्योंकि रेलवे ग्राउंड तक उन्हें आने में दिक्कत थी. मैंने उन बच्चों में टेक्निकल स्किल डेवलप करना शुरू किया, मुझे मालूम था कि अगर मैं यह चीज इन बच्चों में डेवलप कर देता हूं, तो इनमें इतना दम है कि ये आगे चलकर अच्छे खिलाड़ी बनेंगे, क्योंकि फुटबॉल इन में नेचुरल था, मुझे बस इन्हें टेक्निकल साउंड करना है.
सवाल:आदिवासी क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या आती है परिवार को समझाना कि बच्चों को फुटबॉल खेलने ग्राउंड भेजें, क्या आपको भी इस समस्या का सामना करना पड़ा?
जवाब:शुरुआत में इस तरह की समस्याएं तो झेलनी पड़ी, क्योंकि विचारपुर में लड़के, लड़कियां सभी फुटबॉल प्लेयर हैं. यहां पहले एक दो लड़कियां भी खेलने आती थीं, ज्यादातर पैरेंट्स लड़कियों को आने नहीं देते थे फिर मैं एक दिन जाकर पेरेंट्स से मिला, उनसे बात की और उन्हें समझाया कि आजकल खेल में भी करियर है. खेल से आपका नाम रोशन होगा, गांव का नाम रोशन होगा और बच्चों का नाम रोशन होगा, ये लड़कियां बहुत आगे तक जा सकती हैं. इसके बाद सारे तो नहीं मानें, लेकिन दो-तीन लोग मान गए.
सुजाता कुंडे, रजनी और यशोदा यह जो 2-3 लड़कियां थीं, ये आने लगीं और जो लड़कियां आ रहीं थीं उनके पैरेंट्स-भाई भी फुटबॉल प्लेयर थे, तो उन्हें समझाना आसान हुआ. फिर इन पर हमने काम करना शुरू किया और जब यह नेशनल लेवल तक पहुंच गए, नेशनल खेल कर आए तो फिर यहां मीडिया ने भी इन खिलाड़ियों को अच्छा मोटिवेट किया, जिसका बहुत फायदा मिला और इन्हें देखकर गांव की और लड़कियां आने लगीं. फिर फुटबॉल की टीम ही पूरी बन गई, काफी सारी बच्चियां वहां आने लग गई और उस दौर में मध्य प्रदेश की टीम से फर्स्ट इलेवन में हमारे विचारपुर से 8 से 9 लड़कियां मध्य प्रदेश की टीम से खेलती थीं, जो एक बड़ी अचीवमेंट थी.
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