गयाःबिहार के गया जी में विश्व प्रसिद्ध पितृ पक्ष मेला आज 28 सितंबर से शुरू हो गया है. पितृपक्ष मेले की अद्भुत महिमा है. पितृपक्ष में पितर स्वयं गया जी को चले आते हैं. पुत्र के आने के पूर्व ही पितर गया जी तीर्थ आकर इंतजार करते हैं. गयाजी में पितृपक्ष मेला (महालया पक्ष) एक पखवारे तक चलता है. आज हम आपको बताएंगे कि इस अवधि में किन-किन तिथियां में कहां- कहां पिंडदान और तर्पण करने चाहिए.
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विषणुपद मंदिर: सनातन आस्था के प्रतीक विष्णुपद मंदिर का निर्माण इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने कराया था. जीवित काले पत्थरों से निर्मित 100 फीट ऊंचे विश्व प्रसिद्ध विष्णु पद मंदिर का निर्माण 1780 ईस्वी में हुआ था. मंदिर के गर्भ गृह में भगवान गदाधर श्री विष्णु का 13 इंच का चरण चिन्ह अभी भी रक्षित है. यह ईश्वरीय माया है कि सैकड़ो वर्षों से करोड़ों भक्तों द्वारा स्पर्श किए जाने के बावजूद चरण चिन्ह की आभा कायम है.
प्राचीन कथाएं हैं प्रचलितः इसके संबंध में प्राचीन समय की बात है, जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की तब अनेक प्राणियों के साथ गयासुर को भी उत्पन्न किया. इसके बाद कोलाहल पर्वत पर जाकर गयासुर ने घोर तपस्या की. उसके तप से इंद्रदेव को भी भय सताने लगा कि कहीं उनके सिहासन न छीन जाए, तब इंद्रदेव भगवान भोले के पास इसका समाधान के लिए पहुंचे. भगवान भोलेनाथ ने उन्हें भगवान विष्णु से मिलने के लिए कहा. इंद्रदेव भगवान विष्णु जी के पास गए. उनसे प्रार्थना की. इंद्र की बात सुन विष्णु जी ने उन्हें आश्वासन दिया और स्वयं गयासुर के पास गए.
भगवान विष्णु से मांगा वरः गयासुर ने प्रणाम कर कहा- हे भगवान आपके दर्शन हो गए, तब भगवान विष्णु ने कहा, कोई वर मांगो. तब गयासुर ने वर मांगा-भगवान मैं जिसे भी स्पर्श करूंगा, स्वर्ग धाम को जाए. विष्णु जी ने न चाहते हुए भी तथास्तु कहा. इस वरदान के बाद गयासुर सभी प्राणियों को अपना स्पर्श से स्वर्ग लोक भेजने लगा. परिणाम स्वरुप यमपुरी सूनी हो गई, तब सभी देव ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की. ब्रह्मा जी ने गयासुर से कहा कि मुझे यज्ञ हेतु धरती में कोई पवित्र स्थान नहीं मिला था, तुम अपना शरीर यज्ञ हेतु मुझे सौंप दो. यह सुन ब्रह्मा जी की बात सहर्ष स्वीकार की.
नारायण जी के चरण स्पर्श से ठीक हुए गयासुरः गयासुर के शरीर पर धर्मशिला रख यज्ञ प्रारंभ किया गया. कहते हैं, कि गयासुर का शरीर यज्ञ के बीच अनवरत हिलता रहा, तब उसे रोकने के लिए भगवान श्री नारायण ने अपने दाहिने पैर को गयासुर के शरीर पर रखा. नारायण जी के चरण स्पर्श से ही गयासुर का शरीर हिलना बंद हो गया. गयासुर ने कहा- भगवान जिस स्थान पर मैं प्राण त्याग रहा हूं. वह शिला में परिवर्तित हो जाए और मैं उसमें सदा मौजूद रहूं और उस शिला पर आपके पवित्र चरण के चिन्ह रहें. तब से भगवान श्री हरि का 13 इंच का श्री चरण विराजमान है.
15 किलोमीटर में है गया तीर्थः मोक्ष प्रदान करने वाला गया तीर्थ 15 किलोमीटर में है. शास्त्रानुसार 15 किलोमीटर में गया तीर्थ है, वहीं एक कोस यानि 3 किलोमीटर में गयासिर है. इस तीर्थ में आने से समस्त पितरों का उद्धार हो जाता है. भगवान नारायण ने स्वयं अपना बायां पैर गयासुर पर रखा था. यहां भगवान नारायण स्वयं के गदा लेकर विराजमान हुए थे. तीर्थ यात्री गया आकर विष्णु पद तीर्थ के अवश्य दर्शन करें और पितरों को मोक्ष दिलाएं.
फाल्गुनी नदी गंगा तीर्थ से भी श्रेष्ठ:फल्गु नदी अंत: सलिला है. यहां सीताजी रामजी लक्ष्मण जी आए थे. इतिहास पुराण में यह वर्णित है. माता सीता के श्राप से फाल्गुनी अतः सलिला हो गई. यहां पितरों के निर्मित तर्पण अवश्य करें. फाल्गुनी में तर्पण अति श्रेयस्कर है. फल्गु गंगा नदी तीर्थ से भी श्रेष्ठ समान आता है. इतिहास पुराणों में यह वर्णित है.
प्रेतशिला में पिंडदान:प्रेतशिला में पिंड प्रदान अवश्य करना चाहिए. यहां चने के सत्तू प्रेतशिला पर डालें. इससे पितरों को प्रेतत्व से मुक्ति होती है. पिंड वेदी के रूप में प्रेतशिला अति महत्वपूर्ण है.
गयाजी धाम में पूजा स्थल पर डेकोरेशन अक्षयवट के नीचे श्रादध और ब्राह्मण भोजनः माता सीता के आशीर्वाद से वह वट वृक्ष आज भी अक्षय है और उसकी कई शाखाएं काफी दूर तक फैल गई है. अक्षय वट के नीचे शश्राद्ध करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. आश्विन कृष्ण अमावस्या के दिन अक्षय वट के नीचे श्रादध और ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए. यहीं पर गयापाा पण्डों के द्वारा सुफल विदा भी दी जाती है.
माता सीता ने राजा दशरथ का किया पिंडदानः पुराणों में वर्णित है कि माता सीता ने आकाशवाणी होने के बाद गया सीता कुंड के समीप फल्गु नदी में राजा दशरथ का पिंडदान किया था. तब भगवान राम और लक्ष्मण जी पिंडदान सामग्री लाने अन्यत्र गए थे. माता सीता द्वारा राजा दशरथ का पिंडदान करने के बाबत साक्षी रहे चार ने झूठ बोल दिया था. वहीं सिर्फ वट वृक्ष ने सच बोला था, जिससे प्रसन्न होकर माता सीता ने वट वृक्ष को अक्षय का वरदान दिया था. तब से अक्षय वट के रूप में वह वट वृक्ष यहां मौजूद है.