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मोक्ष की भूमि गया में पंडा समाज शास्त्रीय संगीत ठुमरी को दे रहा नया 'जीवन' - राजन सिजुआर ठुमरी गायक

बिहार की धार्मिक नगरी गया पूरे विश्व में मोक्षधाम के नाम से प्रसिद्ध है. यहां के पंडे सिर्फ कर्मकांड ही नहीं करवाते, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर को भी संजोकर रखते हैं. इन्हीं में से एक है 'ठुमरी' शास्त्रीय संगीत. इसकी विधा यूं तो अवध से निकली हुई मानी जाती है. लेकिन गया भी अब इसका एक केंद्र बनता दिख रहा है. पढ़ें पूरी खबर-

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Published : Oct 9, 2021, 8:40 PM IST

गया :बिहार का गया शहर (Gaya) विश्वविख्यात है. पिंडदान और कर्मकांड करवाने वाले पंडे सिर्फ 'मोक्ष' ही दिलाने का काम नहीं करते, बल्कि भारतीय समाज की सांस्कृतिक विरासत को भी सहेजकर रखते हैं. यही वजह है कि उप शास्त्रीय गायन ठुमरी (Thumri) गया के घरानों में रच बस गई है. पंडा समुदाय अब ठुमरी गाता भी हैं और ये घराना नई पीढ़ी को सिखाता भी है.

दरअसल, गया की सांस्कृतिक विरासत काफी पुरानी है. वर्षों पहले शास्त्रीय संगीत का महत्वपूर्ण केंद्र गया भी हुआ करता था. ठुमरी में गया घराने की ख्याति पूरे देश में रही है. ठुमरी खासकर गयापाल पंडा समाज के लोग गाते थे. ठुमरी शास्त्रीय संगीत का एक उप शास्त्रीय गायन है, जो पूरब में लखनऊ, बनारस और गया में गाया जाता है और पश्चिम में पंजाब क्षेत्र में इसका मधुर संगीत सुनाई देती है. ठुमरी गायन में गया घराने की ठुमरी ज्यादा ख्यातिप्राप्त थी.

पंडा समाज शास्त्रीय संगीत ठुमरी को दे रहा नया 'जीवन'

ठुमरी की शुरुआत लखनऊ से हुई, उसके बाद ठुमरी का विकास बनारस में हुआ. गया में गयापाल पंडा संगीत में काफी रुचि रखते थे. गया घराना की ठुमरी विष्णुपद मंदिर क्षेत्र के अंदर हुआ. पंडा समाज ही इस क्षेत्र में काफी अमीर हुआ करते थे. तब उनके यहां गीतों की महफ़िल सजती थी. लगभग 200 साल पूर्व पंडा समाज का विद्वान कलाकार कन्हैया लाल ने राजस्थान के गायक सोनी सिंह को गया आने का बुलाया भेजा था. सोनी सिंह ठुमरी के बड़े गायक थे, उन्होंने ही गया घराना के ठुमरी की शुरुआत की.

ठुमरी संगीत की अन्य शैलियों में से तेजी से उभरी. इसका उद्भव 16-17वीं शताब्दी में अवध के नवाबों के राजदरबार से देखा जा सकता है. 19वीं शताब्दी में लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल में इसकी लोकप्रियता और आकर्षण के चलते इसको नई पहचान मिली. बनारस के घरानों ने ठुमरी की मिठास को और बढ़ाया. बनारस में ही ठुमरी का विकास हुआ. इसी काल में ठुमरी का एक घराना गया में उभरा. अब गया में ठुमरी एक नए केंद्र के रूप में पंडा समाज के घरानों में परिपक्व हो रही है.

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भाव प्रधान गायिकी वाली ठुमरी को गया में एक और घराना मिला. गया घराना की ठुमरी 100 सालों में इतनी ख्याति प्राप्त कर चुकी थी कि पूरे देश में इसकी चर्चा होने लगी. भले ही आज लोगों में शास्त्रीय संगीत में रुचि कम हुई है, लेकिन गयापाल पंडा समाज ने आज भी गया घराना की ठुमरी को जीवित रखा है. पंडा समुदाय से 'राजन सिजुआर' आज भी गया घराने की ठुमरी गाते हैं. साथ में अन्य लोगों को सिखाते भी हैं.

'गया में ठुमरी की जब संगत बैठती थी तब पूरी रात बीत जाती थी. गया की ठुमरी भी भाव प्रधान गायन की ठुमरी थी. गया की ठुमरी के गायन में गले को कोई ज्यादा हरकत करने की जरूरत नहीं पड़ती. मैं 40 सालों से गायन विधा को सीखा हूं. गया घराना की ठुमरी हर लोगों की जुबान तक पहुँचे, उसके लिए प्रयासरत हूं. मैं सुर सलिला एक संस्था बनाकर बच्चों को निःशुल्क सिखा रहा हूं'- राजन सिजुआर, ठुमरी गायक, पंडा समाज

गया घराने की ठुमरी का गायन स्वर्गीय पंडित रामजी मिश्रा ने शुरू किया था. रामजी मिश्रा गया घराने की ठुमरी गायन को बहुत ऊंचाई तक ले गए. ये आज भी पूरे हिंदुस्तान में गायी जा रही है. उसी गया घराने की स्वर्गीय पंडित कामेश्वर पाठक और स्वर्गीय गोवर्धन मिश्रा ने भी इस गायन शैली को काफी प्रसिद्धि दिलाई. वर्तमान में इस शैली के सबसे प्रसिद्ध गायक पंडित राजन सिजुआर हैं. अपने देखरेख में अनेकों शिष्यों को इस गायन शैली की विधिवत शिक्षा दे रहे हैं.

'हमलोग नामांकन करा चुके छात्रों में से कुछ का चयन कर ठुमरी का प्रशिक्षण देते हैं. अभी 15 छात्र इसका प्रशिक्षण ले रहे हैं. साथ ही कई छात्रों ने इसमें महारत हासिल कर लिया है'- संदीप कुमार सिन्हा, प्रशिक्षक, किलकारी

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'किलकारी' में छात्रों को ठुमरी गायन के प्रशिक्षण देने वाले शिक्षक संदीप कुमार सिन्हा ने बताया कि गया घराने के ठुमरी की शुरुआत पंडा समाज के यहां से हुई थी. पंडा समाज के यहां से कई गायक गया घराना की ठुमरी को गाते थे. पंडा समाज के अलावा अन्य समाज के लोगों ने भी गया घराना की ठुमरी में अपनी ख्याति पायी है. किलकारी नए पीढ़ी के बच्चों को ठुमरी की विरासत को बताती है. साथ ही ठुमरी सीखने वाले इच्छुक छात्रों को ठुमरी सिखाया जाता है.

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