नई दिल्ली :आईबी और रॉ के पूर्व चीफ एएस दुलत (Ex RAW Chief A S Dulat) ने कहा है कि कश्मीर में अब पाकिस्तान का खेल खत्म हो चुका है. जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के अध्याय ने घाटी में प्रचलित धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को तोड़ दिया है. 1980 के दशक के उत्तरार्ध से, कश्मीर कभी भी पहले जैसा नहीं रहा. पाकिस्तान में अस्थिरता और पूर्व पीएम नवाज शरीफ की एंट्री की अफवाहों और भारत पर इसके असर पर उन्होंने कहा, 'भारत के मियां साहब के साथ हमेशा अच्छे रिश्ते रहे हैं.'
कश्मीर मुद्दे पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सलाहकार रहे दुलत ने उग्रवाद कैसे शुरू हुआ, उसके बाद की अशांति, डॉ. फारूक अब्दुल्ला की भूमिका और दिल्ली की भागीदारी. दिल्ली कश्मीर को ब्लैक एंड व्हाइट में कैसे देख रही है और वर्तमान स्थिति क्या है, हर मुद्दे पर अपनी बात रखी. विस्तार से पढ़िए पूरा साक्षात्कार.
सवाल : आप जम्मू कश्मीर की वर्तमान स्थिति को कैसे देखते हैं, विशेषकर अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद? क्या कोई सकारात्मक विकास हुआ है?
जवाब : पर्यटन तेजी से बढ़ रहा है. आंकड़ों पर नजर डालें तो यह उल्लेखनीय है और कश्मीरी कारोबारियों के लिए यह एक बड़ा सकारात्मक घटनाक्रम है. सुरक्षा के मोर्चे पर, इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि पाकिस्तान अब ख़त्म हो चुका खेल है. आज भी कश्मीरी मानते हैं कि इसमें पाकिस्तान की कोई भूमिका नहीं है. इसलिए, मैं तो यह कहूंगा कि अलगाववाद में कमी आई है, लेकिन आतंकवाद में नहीं. हम पुंछ और राजौरी में आतंकी हमलों में वृद्धि देख रहे हैं जो एक चिंता का विषय है. आइए इसे इस तरह से कहें, अलगाववाद भले ही फीका पड़ गया हो, लेकिन इस मामले की सच्चाई यह है कि यह अभी भी जीवित है और बंद कक्षों के नीचे पनप रहा है. कोई नहीं जानता कि यह कब फूटेगा लेकिन हां! फिलहाल इसमें भारी कमी आई है.
सवाल : अपने एक हालिया लेख में आपने तर्क दिया है कि जमात-ए-इस्लामी कश्मीर में अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है. आपको ऐसा क्यों लगता है कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद यह अत्यधिक बढ़ गया है, इस तथ्य के बावजूद कि गृह मंत्रालय ने 2019 में इस पर प्रतिबंध लगा दिया था?
जवाब : जमात कश्मीर की जड़ों में घुस चुकी है जो मेरे लिए बेहद चिंता का विषय है. कश्मीर हमेशा से धर्मनिरपेक्षता की मीनार रहा है लेकिन उग्रवाद के बाद, इन सिद्धांतों को कट्टरवाद से खतरों का सामना करना पड़ा. लेकिन, इस समय अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद गृह मंत्रालय द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के बावजूद, जमात की राजनीतिक पकड़ और समर्थन नेटवर्क के संदर्भ में इसका जमीनी स्तर पर बहुत कम प्रभाव पड़ा है.
सच तो यह है कि आप इस संगठन के सदस्यों को नीचा दिखा सकते हैं, लेकिन इसके समर्थकों को नहीं. 5 अगस्त के बाद अलगाव और निराशा ने कश्मीरियों के मानस पर भारी प्रभाव डाला है और उन्हें निराश कर दिया है. और इस निराशा और अलगाव ने जमात जैसे संगठनों को क्षेत्र में अपना पैर बढ़ाने के लिए एक आधार प्रदान किया.
सवाल : आपने कश्मीर का सबसे अशांत समय बहुत करीब से देखा है. आप वर्तमान स्थिति को कैसे देखते हैं जहां पिछले पांच वर्षों से कोई विधानसभा नहीं है?
जवाब :निराशा और सन्नाटा है, जो खतरनाक है. हमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया के पुनरुद्धार और शीघ्र चुनाव की आवश्यकता है.
सवाल : आप अपनी आखिरी किताब में कहते हैं कि डॉ. फारूक अब्दुल्ला अधिक धार्मिक हो गए हैं, ऐसा आप क्यों सोचते हैं?
जवाब : डॉ. अब्दुल्ला बूढ़े हो गए हैं. जब उन्हें सात महीने के लिए नजरबंद रखा गया, तो इसका उन पर बहुत प्रभाव पड़ा. लेकिन डॉ. अब्दुल्ला के अधिक धार्मिक होने के पीछे कश्मीर के हालात, दिल्ली के हालात और उनकी बढ़ती उम्र कारण हैं.
सवाल : आपने घाटी के घटनाक्रम पर बारीकी से नजर रखी है. क्या आपको लगता है कि डॉ. फारूक बीजेपी के साथ गठबंधन कर सकते हैं?
जवाब : मुफ्ती सैयद और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के साथ जो हुआ उसके बाद उनके लिए यह बहुत मुश्किल होगा. वह बीजेपी के साथ जाने के बारे में सोच सकते हैं लेकिन उनका दिल उन्हें इसकी इजाजत कभी नहीं देगा.यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि घाटी में चुनाव कब कराए जाते हैं. चाहे वह लोकसभा से पहले हो या लोकसभा चुनाव के बाद.
सवाल : क्या कश्मीर बीजेपी को वोट देगा?
जवाब : नहीं, कश्मीरी बीजेपी से नाखुश हैं और शायद बीजेपी को वोट न दें. वे जम्मू से सीटें जीत सकते हैं लेकिन घाटी में नहीं.
सवाल : इस बात पर बहुत चर्चा है कि वास्तव में उग्रवाद कब शुरू हुआ और ट्रिगर पॉइंट क्या था. क्या 1987 में कथित चुनाव धांधली एक ट्रिगर पॉइंट था?
जवाब : मुझे नहीं लगता कि 1987 के चुनावों में धांधली हुई थी और अगर हुई भी थी तो MUF (मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट) कुछ ही सीटें जीतने में कामयाब रही थी और अगर हम इस तर्क के साथ चलें कि धांधली हुई थी, तब भी वे केवल कुछ सीटें ही जीत सकते थे.
आतंकवाद की जड़ें कश्मीर के कद्दावर नेता शेख अब्दुल्ला की मौत के बाद से चली आ रही हैं. पाकिस्तान को शेख अब्दुल्ला कभी पसंद नहीं आए और 1982 में उनकी मौत के बाद भारी चिंताएं पैदा हुईं. पूर्व पीएम इंदिरा गांधी ने शेख साहब से कहा कि अब डॉ. फारूक को सीएम का प्रभार दिया जाना चाहिए और वह सहमत हो गए.
सीएम बनते ही वह बेहद गंभीर हो गए और अपने पिता की कैबिनेट में भी फेरबदल कर दिया. तब इंदिरा गांधी फारूक के साथ गठबंधन चाहती थीं लेकिन उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि आप केंद्र संभालें हम अपने राज्य की देखभाल करेंगे. इससे वह अवश्य नाराज हुईं और 1984 में डॉ. अब्दुल्ला को बर्खास्त कर दिया गया.
यह पाकिस्तान के लिए हस्तक्षेप का प्रारंभिक बिंदु था क्योंकि शेख अब्दुल्ला की मृत्यु ने एक खालीपन पैदा कर दिया था और बाद में उनके बेटे को बर्खास्त कर दिया गया था. इससे विद्रोह को भारी प्रोत्साहन मिला. वहीं, जेकेएलएफ के संस्थापक अमानुल्लाह खान हाल ही में पाकिस्तान से लौटे थे. तो, इन सब चीजों ने मिलकर आतंकवाद को बढ़ावा दिया.