हैदराबाद : ऐसा क्यों है कि मनुष्य के तौर पर आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार कुछ लोगों के लिए ही सुरक्षित कर दिया जाता है? इस देश में लाखों लोग आज भी दूसरे मनुष्यों का मैला और गंदगी को साफ करने के लिए मजबूर हैं? जब हम अपने इस तरह की जीवन शैली पर उठने वाले सवालों के जवाब की तलाश में निकलते हैं, तो कानून और सरकार को दोष देना आम सी बात लगती है. कोई भी विश्लेषण सतही रूप से बाहरी स्थितियों को छू सकता है. लेकिन समस्या की जड़ तक पहुंचना अहम है. कुछ वर्गों के खिलाफ समाज के सदियों पुराने भेदभाव ने उन्हें शिक्षा और आर्थिक समानता से वंचित रखा है. इसका एक प्रत्यक्ष और शर्मनाक उदाहरण है आज भी कुछ लोग मनुष्यों का मैला ढोते हैं. मानव मलमूत्र को साफ़ करने का काम करने के लिए मनुष्यों का उपयोग करने की यह प्रथा इस देश में अभी भी प्रचलन में है. यह सरकारों की अक्षमता का एक कलंक है, जो अधिनियमित कानूनों को सख्ती से लागू करने में असमर्थ हैं, जो वर्षों से चले आ रहे इस तरह के अनैतिक व्यवहार को अनदेखा कर रही है.
मानवाधिकारों का उल्लंघन
संविधान व्यक्तियों की गरिमा की गारंटी देता है. सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है. जिसे सुनिश्चित करने के लिए, सरकार ने 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम के खिलाफ एक कानून बनाया. राज्यों की ज़िदगी रवैये के कारण किसी भी स्तर पर कानून को ठीक से लागू नहीं किया. बीस साल बाद, 2013 में, मानव मलमूत्र को साफ करने के लिए मनुष्यों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने और उनके पुनर्वास के लिए कानूनी गारंटी प्रदान करने के लिए एक और कानून पारित किया गया. कानून में मानव के मलमूत्र को साफ करने के काम पर नियुक्त करने के लिए पांच साल तक की जेल और पांच लाख रुपये के जुर्माने का प्रस्ताव है. लेकिन विचित्र बात यह है कि देश में लाखों लोग अभी भी उस पेशे को जारी रखने के लिए मजबूर हैं - 2013 के कानून के तहत इन सात वर्षों में किसी को भी दंडित या जुर्माना देने का कोई रिकॉर्ड नहीं है. देश भर में अभी भी 7.7 लाख लोग मैला ढोने का काम कर रहे हैं. हजारों लोग अपने हाथों से मानव मल को उठाने और उसे टोकरियों में ले जाने के क्रूर व्यवसाय में लगे हुए हैं. यह अनुमान लगाया जाता है कि हजारों लोग अभी भी भारतीय रेलवे में मैला ढोने का काम करते हैं. आधिकारिक आंकड़े चाहे जो भी कहें, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि देश भर में हर साल औसतन 1,700 लोग बीमारी, सीवर की सफाई के कारण, सेप्टिक टैंक विषाक्त गैसों के संपर्क में आने से मर जाते हैं.