हैदराबाद : आरसीपी सिंह के केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद ही कयास लगाए जा रहे थे जनता दल यू जल्द ही अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनेगा. आखिरकार पार्टी ने ललन सिंह को अपना नया अध्यक्ष चुन लिया. वैसे, आरसीपी सिंह ने मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद कहा था कि वो अपना काम जानते हैं और पार्टी का भी काम करते रहेंगे.
अब सवाल ये उठता है कि जब आरसीपी सिंह ने खुद कहा था कि वह पार्टी का काम देखते रहेंगे, फिर नीतीश कुमार ने उन्हें अध्यक्ष बने रहने पर अपनी सहमति क्यों नहीं दी ? क्या नीतीश और आरसीपी सिंह के बीच मनमुनटाव है ? क्या नीतीश नहीं चाहते थे कि आरसीपी सिंह मोदी कैबिनट में शामिल न हों, क्योंकि जितनी संख्या में उन्होंने मंत्री पद मांगा था, उनकी मांगें पूरी नहीं हुई. नीतीश ने आरसीपी सिंह के मंत्री बनने पर ट्वीटर के जरिए कोई बधाई भी नहीं दी थी, जबकि आजकल वह सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहते हैं.
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार नीतीश समर्थक नेताओं का कहना है कि मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होने का निर्णय खुद आरसीपी सिंह का था. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने पहले ही आरसीपी सिंह को मंत्री बनने पर राजी कर लिया था. शायद आपको लग रहा होगा कि ललन सिंह का अध्यक्ष बनने से इस मुद्दे का कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. दोनों ही मामले एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
दरअसल, नीतीश कुमार चाहते हैं कि उनका सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला कायम रहे. क्योंकि वह खुद कुर्मी जाति से आते हैं. आरसीपी सिंह भी उसी जाति से हैं. लिहाजा, अगर इसी जाति से किसी को अध्यक्ष बना देते, तो बिहार में यह संदेश जाता कि नीतीश की पार्टी किसी एक जाति की पार्टी है. वह दूसरी जाति के नेताओं को उतना अधिक वैल्यू नहीं देते हैं. नीतीश अपनी छवि को लेकर काफी सजग रहते है. लिहाजा, यह निर्णय उनकी सोची-समझी रणनीति का एक हिस्सा है.
राजनीतिक जगत में यह चर्चा जोरों पर थी कि नीतीश कुमार उपेंद्र कुशवाहा को अध्यक्ष बना सकते हैं. उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय दल की जिम्मेदारी भी दी गई. इसके बाद यह मान लिया गया था कि कुशवाहा ही अगले अध्यक्ष होंगे. कुशवाहा के हावभाव भी ऐसे संकेत दे रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वह कोइरी जाति से आते हैं. कुर्मी-कोइरी को 'लव-कुश' जैसे युग्मों से संबोधित किया जाता है.
ललन सिंह भूमिहार जाति से आते हैं. भूमिहार सवर्ण समुदाय में आता है. नीतीश और ललन सिंह की जोड़ी भी काफी पुरानी है. ललन सिंह किसी भी तरीके से नीतीश को चुनौती नहीं दे सकते हैं. पार्टी के गठन के 18 साल के इतिहास में पहली बार है कि किसी फॉरवर्ड को नीतीश ने पार्टी अध्यक्ष बनाया है. ललन सिंह प्रबंधन के काम में माहिर समझे जाते हैं.
बिहार की राजनीति को करीब से जानने वाले बताते हैं कि जदयू यानी नीतीश कुमार चाहते हैं कि भाजपा का उन पर दबाव न रहे. इसलिए भाजपा के वोट बैंक में जब तक सेंधमारी नहीं की जाएगी, तब तक जदयू अपने ऊपर से दबाव नहीं हटा सकती है. भूमिहार मतदाता भाजपा का मुख्य वोट बैंक माना जाता रहा है.
दूसरी बात यह है कि नीतीश दलित नेता राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी वोट के वोट बैंक को भी हासिल करना चाहती है. क्योंकि चिराग पासवान खुले तौर पर नीतीश का विरोध कर रहे हैं. इसलिए ऐसा कहा जाता है कि उनके इशारे पर ही ललन सिंह ने पशुपति पारस को आगे किया. उनकी पार्टी में फूट डाला और वे मंत्रिमंडल का हिस्सा बन गए. अब जदयू चाहती है कि इनका वोट बैंक, जिसमें दलितों के साथ-साथ सवर्ण मतदाता का भी कुछ हिस्सा उनके पास है, उनके पास चला आए. यह एक बड़ी वजह है कि ललन सिंह को पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेवारी सौंपी गई है.
विश्लेषक मानते हैं कि पशुपति पारस अकेले अपने बुते पार्टी को नहीं तोड़ सकते थे. जब तक कि उन्हें किसी की शह न मिली हो, तब तक ऐसा संभव नहीं हो पाता. पारस ने अपने पांच सांसदों को अपने पक्ष में किया और उसके बाद ही मोदी मंत्रिमंडल में शामिल हुए. इसी साल फरवरी में एलजेपी के कई नेता जदयू में शामिल हो गए.
माना जा रहा है कि देर सवेर पशुपति पारस और उनके गुट के सभी नेता भी जदयू का हिस्सा बन सकते हैं. यह निर्णय कब तक लिया जाएगा, यह समय की बात है. इस पूरे प्रकरण में ललन सिंह की निर्णायक भूमिका रही है.
इससे पहले लोजपा के एकमात्र विधायक को जदयू में लेकर आने का श्रेय भी ललन सिंह को ही दिया जाता है.