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विशेष : अनवरत राजनीतिक संकट के साए में नेपाल

नेपाल में राजनीतिक संकट का दौर जारी है. लोकतांत्रिक गणराज्य की व्यवस्था अपनाए जाने के बावजूद संवैधानिक संस्थाएं अपनी जड़ें मजबूत नहीं कर पाई हैं. ऊपर से चीन की बढ़ती दखलंदाजी ने भारत की चिंताएं जरूर बढ़ा दी हैं. हालांकि, विशेषज्ञ ऐसा नहीं मानते हैं. ऐसी स्थिति में भारत को क्या करना चाहिए, पढ़ें पूरा आलेख.

संकट के साए में नेपाल
संकट के साए में नेपाल

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Published : Jan 30, 2021, 10:00 AM IST

हैदराबाद : नेपाल ने जब से राजतंत्र की जगह संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य व्यवस्था को अपनाया है, तब से राजनीतिक अस्थिरता झेलता आ रहा है. पिछले 10 सालों से यहां की स्थिति अधिक खराब हुई है. इस अस्थिरता की मुख्य रूप से तीन वजहें हैं. नाजुक संवैधानिक संस्थाएं, महत्वाकांक्षी और सत्ता के भूखे राजनीतिक नेतृत्व और खंडित राजनीतिक परिदृश्य.

वर्तमान संकट की शुरुआत उस समय शुरू हुई, जब नेपाल के पीएम केपी शर्मा ओली ने गत दिसंबर में संसद भंग कर दी. अप्रैल-मई 2021 में नए चुनाव कराने की घोषणा की गई. यह नेपाल के संविधान का खुल्लम खुला उल्लंघन है. क्योंकि संविधान में विघटन का कोई प्रावधान नहीं है.

किसी भी कारण से अगर कोई प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की योग्यता खो देते हैं, या उनके पास बहुमत नहीं है, वैसी स्थिति में नए प्रधानमंत्री के चुनाव का स्पष्ट प्रावधान है.

प्रधानमंत्री ने बताया कि उनकी पार्टी के वरिष्ठ सहयोगी उन्हें सुचारू शासन चलाने नहीं दे रहे हैं. सत्तारूढ़ पार्टी की आंतरिक कलह एक वजह बताई गई.

निश्चित तौर पर उन्हें अपनी पार्टी में अपना समर्थन हासिल करना चाहिए था. ऐसा नहीं हो पाता, तो किसी दूसरे नेता के लिए मार्ग प्रशस्त कर देते.

ओली के मुख्य रूप से दो प्रतिद्वंद्वी हैं. पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' और माधव कुमार 'नेपाल'. इन दोनों नेताओं ने ओली पर सत्ता साझा करने के लिए हुए समझौते को तोड़ने के आरोप लगाए हैं. उनका ये भी आरोप है कि वह अपने पास अधिक से अधिक अधिकार रख रहे हैं. इसके जरिए वह संवैधानिक संस्थाओं और निर्णय लेने वाली प्रमुख संस्थाओं पर एकाधिकार चाहते हैं. उनके प्रशासन में भ्रष्टाचार बढ़ा है. वह सत्ता को चलाने में अक्षम साबित हो रहे हैं.

क्योंकि ओली का कदम सत्ता के प्रति उनके लालच को दर्शाता है, लिहाजा कई तरह के कयास भी लगाए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि चुनाव को आगे बढ़ाया जा सकता है. आपातकाल की घोषणा हो सकती है. संविधान को नष्ट किया जा सकता है. लंबे समय तक देश को अस्थिरता के दौर में धकेला जा सकता है.

ओली के इस कदम ने नेपाल की बिखरी हुई राजनीति को और अधिक विखंडित कर दिया है. नई राजनीतिक शक्तियों और उनके विलयण को बढ़ावा दिया है. ओली अपनी पार्टी में अल्पमत में हैं. पार्टी ने उन्हें निकालने की घोषणा भी कर दी है. पार्टी का विभाजन जारी है.

विभाजन की यह प्रक्रिया विभिन्न प्रांतों और जिलों के स्तर तक गहरी हो रही है. हालांकि, चुनाव आयोग ने अब तक 'वास्तविक' पार्टी को मान्यता नहीं दी है. मुख्य विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस भी आंतरिक खंडन का सामना कर रही है. उसे भी नहीं पता है कि इस स्थिति से कैसे निपटें.

नेपाल में हिंदुत्व विचारधारा फिर से प्रबल हो रही है. मौजूदा स्थिति का फायदा उठाने के लिए हिंदूवादी संगठन फिर से अपने को एकट्ठा कर रहे हैं.

मधेशी समूह भी राजनीतिक रूख को करीब से देख रहे हैं.

धीरे-धीरे ओली के लिए सत्ता पर पकड़ बनाए रखना मुश्किल होता जा रहा है. ऐसी स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों से आग बने रहने के लिए जरूरी है कि वह या तो नेपाली कांग्रेस या फिर हिंदूवादी शक्तियों से समझौता करें.

किसी को नहीं पता है कि वह किसके साथ गठबंधन कर सफल होंगे. हो सकता है वह प्रचंड गुट को तोड़ने की कोशिश करें, जिसे आम तौर पर कमजोर समझा जाता है.

माओवादियों के प्रचंड गुट और माधव नेपाल के नेतृत्व वाले यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनिस्ट के बीच ग्रास रूट लेवल तक विरोध रहा है.

प्रचंड की सत्ता में आने की भूख और चीन की गहरी साजिश वाली योजना के दबाव में दोनों गुट 2017-18 में एक हो गए. उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल का गठन किया.

राजनीतिक भ्रम की स्थिति में सड़कों पर शक्ति प्रदर्शन जैसी स्थिति पैदा होने का खतरा बना रहता है. आने वाले समय में अवसरवादी समीकरणों और व्यवधान के छिटपुट मामले देखने को मिल सकते हैं.

नेपाल की स्थिति पर भारत और चीन, दोनों की नजर बनी हुई है. दोनों के आर्थिक और रणनीतिक हित यहां पर छिपे हुए हैं.

नेपाल में सत्ता के इस बदलाव को लेकर भारत और चीन प्रतिस्पर्धी की भांति खड़े हैं. दोनों ही देश अपने हित वाली सरकार चाहते हैं. भारत इस बात से खुश है कि नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी की चीनी योजना असफल हो गई.

पढ़ें -केपी शर्मा ओली बने रहे सकते हैं प्रधानमंत्री : एसडी मुनि

लेकिन इससे क्या होगा. इस पर बड़ा सवालिया निशान लग गया है. भारत के सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान में हिंदुत्व और राजशाही के नेतृत्व वाली ताकतों को बढ़ावा देने का एक विचार हो सकता है. कम्युनिस्टों के बरक्स यह एक काउंटर हो सकता है.

हालांकि, यह याद किया जा सकता है कि हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति सहानुभूति रखने वाला राजशाही नेपाल ने न तो नेपाल को स्थिरता और विकास दिया और न ही चीन या पाकिस्तान को अपने रणनीतिक दांव को फैलाने से रोका.

नेपाल की अस्थिरता वाली स्थिति के बीच भारत को संभलकर चलना होगा. नेपाल में भारत विरोधी ताकतें इसका फायदा उठा चुकी हैं. भारत के लिए बेहतर होगा कि वह नेपाल की आंतरिक और उलझी हुई राजनीति से दूरी बनाए रखे. हालांकि, उस पर नजर बनाए रखना जरूरी है. जब तक नेपाल में संवैधानिक संस्थान स्थायित्व हासिल नहीं कर लेते हैं, तब तक संवेदनशील राजनीति के रास्ते ही चलना होगा. हमें इससे कतई घबराने की जरूरत नहीं है कि नेपाल में चीन उथल-पुथल मचाने में व्यस्त है, उसे कभी न कभी इसकी कीमत अवश्य ही चुकानी पड़ेगी.

(लेखक - प्रो. एसडी मुनि, जेएनयू, विदेश मामलों के विशेषज्ञ)

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