हैदराबाद : संयुक्त राष्ट्र हर साल 11 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाता है. इसकी शुरुआत 2012 से हुई. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र से बहुत पहले 2009 से ही भारत 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाता आ रहा है. जबकि सदियों से देश में प्रतीकवाद, लिंगभेद और भेदभाव का बोलबाला रहा है. क्योंकि भारत बालिकाओं के प्रति सामान्यतया भेदभाव के लिए जाना जाता है. जन्म लेने से पहले ही गर्भ में बच्चे के लिंग का पता लगाकर यौन निर्धारण कर लिया जाता है. जिसे भावी माताओं पर एक तरह से थोप दिया जाता है. महिला भ्रूणों का निर्दयता से गर्भपात कराया जाता है. लड़कियों को एक बोझ के रूप में माना जाता है. अपने स्वयं के परिवार द्वारा बहुत कम उम्र में लड़की की शादी कर दी जाती है. इस प्रकार बालिकाओं के साथ किए जाने वाले अमानवीय व्यवहार की कहानी का कोई अंत नहीं है.
वर्ष 1961 में छह वर्ष की आयु के प्रत्येक 1000 लड़कों पर 976 बालिकाएं थीं. 2001 तक बालिकाओं का यह अनुपात 927 तक गिर गया और 2011 तक यह घटकर 918 हो गया. इससे साफ पता चलता है कि समाज का भेदभाव पूर्ण रवैया बालिकाओं के प्रति कितना घातक है. एनडीए सरकार ने बालिकाओं को बचाने के लिए 2015 में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम शुरू किया था. केंद्र का दावा है कि अभियान ने अच्छे परिणाम प्राप्त किए हैं, क्योंकि लिंगानुपात 16 अंक बढ़कर 934 हो गया है. राष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर सरकार ने घोषणा की कि 640 जिलों में से 422 में लिंगानुपात में सुधार हुआ है. इस अभियान ने यूपी, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में काफी प्रभाव दिखाया है. सरकार का यह भी दावा है कि नवजात की माताओं के पंजीकरण, संस्थागत प्रसव और बालिकाओं की माध्यमिक स्तर की स्कूली उपस्थिति में काफी प्रगति हुई है.
कोरोना काल में बढ़ा बाल-विवाह
हालांकि, कोविड-19 ने लड़की के भविष्य पर अपनी काली छाया डाली है. जबकि प्रत्येक 1000 लड़कों के लिए 950 लड़कियां एक स्वस्थ अनुपात है, जिसे पाने में भारत अभी भी बहुत पीछे है. महामारी के दौरान होने वाले बाल-विवाह की भारी संख्या वास्तव में दिल को झकझोरने वाली है. राष्ट्र केवल उस माहौल में विश्वास के साथ प्रगति कर सकता है जिसमें लड़कियां सशक्त हों. यह ध्यान देने योग्य है कि 1995 के बीजिंग घोषणा के लिए एक कोरोलरी के रूप में संयुक्त राष्ट्र ने 2011 में एक प्रस्ताव पारित किया था. इसमें कहा गया था कि बालिकाओं को शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य का अधिकार है. शैफाली वर्मा, मैथिली ठाकुर, प्रियंका पॉल, हेमा दास, शिवांगी पाठक, रिधिमा पांडे की सफलता, उम्मीदें जगा रही हैं. इसी समय वैश्विक पोषण रिपोर्ट ने घोषणा की है कि भारत में हर दो में से एक महिला जो कि बाल उम्र की है, एनीमिया से पीड़ित है. पिछले साल अपनी रिपोर्ट में एक एनजीओ, सीआरवाई ने कहा था कि ग्रामीण भारत में होने वाले 57 प्रतिशत विवाहों में दुल्हन 15 से 19 वर्ष की आयु की होती हैं. संगठन ने यह भी घोषणा की है कि इस वर्ष के दौरान देश में 72 लाख बाल-विवाह हुए.