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म्यांमार संकट पर पूर्व राजदूत की राय, भारत को दखल नहीं देना चाहिए

म्यांमार में सत्ता सेना के हाथ जाने के विरोध में लोग सड़कों पर हैं. दुनिया भर के कई देश भी म्यांमार में तख्तापलट की आलोचना कर रहे हैं. भारत के संदर्भ में म्यांमार का घटनाक्रम कैसा है, इसको लेकर ईटीवी भारत की वरिष्ठ संवाददाता चंद्रकला चौधरी ने विदेश मंत्रालय में पूर्व राजदूत और उप सचिव (म्यांमार) जितेंद्र त्रिपाठी से टेलीफोन पर बात की. जानिए पूर्व राजदूत ने क्या कहा.

म्यांमार संकट
म्यांमार संकट

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Published : Feb 14, 2021, 10:33 PM IST

नई दिल्ली : म्यांमार में आंग सांग सू ची की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने और सेना के सत्ता अपने हाथ में लेने के विरोध में रविवार को भी बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतरे. देश में निर्वाचित नेता आंग सान सू की की रिहाई की मांग को लेकर सभी आयु वर्ग के लोगों विरोध प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं, लेकिन सेना ने कार्रवाई की धमकी देते हुए चेतावनी जारी की है.

म्यांमार संकट को लेकर पूर्व राजदूत और उप सचिव (म्यांमार) जितेंद्र त्रिपाठी ने कहा कि म्यांमार में सैन्य तख्तापलट पर भारत का रुख यह होना चाहिए या यह होगा कि 'यह म्यांमार की आंतरिक समस्या है.'

त्रिपाठी ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय की बात की जाए तो अधिकांश पश्चिमी देश मानवाधिकार के रवैये से निर्देशित हैं. वह म्यांमार में हुए तख्तापलट के खिलाफ हैं. उनका कहना है कि मानवाधिकारों का उल्लंघन किया गया है. लोकतंत्र के साथ समझौता किया गया है.

त्रिपाठी ने कहा कि तख्तापलट हुआ है इसलिए वह इसका विरोध करेंगे. लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय एक बात भूल जाता है कि म्यांमार में सैन्य तानाशाही के 50 से अधिक वर्ष (1962-2012) हुए थे उसके बाद चुनाव हुआ और आंग सान सू की लगभग 66% मतों से जीतीं और इस बार भी लगभग 85% मतों के साथ वह सत्ता में आईं.

इसका यह मतलब नहीं है कि 50 साल के सैन्य तख्तापलट के दौरान किसी भी देश ने म्यांमार के साथ संबंध नहीं बनाए. 20 देशों ने म्यांमार के साथ 50 वर्षों तक संबंध बनाए रखे. इसलिए इस बार म्यांमार में कुछ भी बहुत अजीब नहीं हुआ क्योंकि सैन्य शासन म्यांमार के खून में है.

'हमें अपने पड़ोसी की मदद की जरूरत'

उन्होंने कहा, 'मेरा मानना ​​है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय खुद को मानवाधिकार का चैंपियन मानता है. भारत की बात करें तो हमारी स्थिति पश्चिमी शक्तियों से भिन्न है. पश्चिमी ताकतें म्यांमार से अलग हैं. म्यांमार हमारा पड़ोसी है और शायद भारत चीन और बांग्लादेश के बाद म्यांमार के साथ तीसरी सबसे बड़ी सीमा साझा करता है. एक और बात जो भारत को म्यांमार से चाहिए वह यह है कि पूर्वी सीमाओं के बजाय हमारी पूर्वोत्तर सीमाओं को सुरक्षित किया जाए. पूर्वोत्तर के कुछ राज्य उग्रवाद गतिविधियों से प्रभावित हैं और इस पर अंकुश लगाने के लिए हमें अपने पड़ोसी म्यांमार की मदद की जरूरत है.'

उन्होंने कहा, सैन्य शासन के बावजूद म्यांमार ने भारतीय सेना को अपनी सीमा पार करने और विद्रोही ठिकानों को खत्म करने की अनुमति दी. यह भारत के लिए बड़ा फायदेमंद साबित हुआ.

त्रिपाठी ने कहा कि म्यांमार में सैन्य तख्तापलट पर भारत का रुख यह होना चाहिए या यह होगा कि 'यह म्यांमार की आंतरिक समस्या है.' उन्होंने कहा कि म्यांमार के लोगों को तय करने दें कि उनके लिए क्या फायदेमंद है और देश और उसके लोगों को शांतिपूर्ण तरीकों से इसे तय करने दें.

म्यांमार की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में पूछे जाने पर त्रिपाठी ने कहा कि म्यांमार की अर्थव्यवस्था काफी समय से सही स्थिति में नहीं थी. न सिर्फ अब बल्कि सैन्य शासन के दौरान और आंशिक रूप से लोकतांत्रिक शासन के दौरान भी अर्थव्यवस्था बेहतर नहीं थी. म्यांमार समृद्ध खनिज संसाधनों का भंडार है लेकिन इसे लोगों के लाभ के लिए उपयोग नहीं किया गया.

'राजनयिक संबंध तोड़ने से म्यांमार को ज्याता नुकसान'

उन्होंने कहा कि हालांकि स्थिति अस्थिर है निश्चित रूप से भारत इसमें हस्तक्षेप करने वाला नहीं है. यह म्यांमार और उसके लोगों पर निर्भर है कि वे बातचीत के माध्यम से तय करें कि उन्हें किस प्रकार की सरकार चाहिए. दुनिया के नेताओं के सैन्य तख्तापलट की निंदा करने और राष्ट्र के साथ राजनयिक संबंधों तोड़ने से पहले से कमजोर म्यांमार की अर्थव्यवस्था को और नुकसान होने की संभावना है.

उदाहरण के लिए जापानी दिग्गज किरिन ने तख्तापलट के बाद म्यांमार के एक प्रमुख सैन्य दल के साथ अपना सौदा पहले ही समाप्त कर दिया है. इसी तरह अन्य विदेशी निवेशक भी अपना हाथ खींच रहे हैं.
सेना के कुछ हफ्तों के अधिकार के बाद हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका ने म्यांमार को मंजूरी दे दी थी. खबरों के अनुसार 10 व्यक्तियों और तीन संगठनों को मंजूरी दी गई है जिन्होंने बर्मा की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को उखाड़ फेंकने में अग्रणी भूमिका निभाई.

'म्यांमार के करीब आ सकता है चीन'

पूर्व राजदूत ने कहा कि म्यांमार के हालात बदलने से चीन उसके करीब आ सकता है. जनरल मिन आंग ह्लिंग जिन्होंने राज्य के प्रमुख के रूप में पदभार संभाला है, जब चीनी विदेश मंत्री वांग यी म्यांमार आए थे उनके साथ लंबी बातचीत हुई थी. इसीलिए यह संदेह है कि बात करने के दौरान उन्होंने चीनी विदेश मंत्री को यह आश्वासन देने की कोशिश की कि चीन और म्यांमार के बीच संबंध खराब नहीं होंगे, लेकिन अगर सेना सत्ता में आती है तो प्रगति होगी.

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त्रिपाठी ने कहा कि पिछले दिसंबर तक म्यांमार की लोकतांत्रिक सरकार के साथ चीन के संबंध लगातार बढ़ रहे थे, इसलिए म्यांमार का चीन के साथ संबंध बढ़ेगा. भारत की बात करें तो भारत के साथ संबंध स्थिर रहेंगे और ज्यादा नहीं बढ़ेंगे, लेकिन साथ ही साथ बिगड़ेंगे भी नहीं. जहां तक रोहिंग्या मुद्दे की बात है तो बांग्लादेश ने म्यांमार सरकार की कार्रवाई का समर्थन किया.

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'जनता ने लोकतंत्र का स्वाद चख लिया है, जोर लगाएगी'

पूर्व राजदूत त्रिपाठी ने कहा कि सैन्य तख्तापलट कुछ समय के लिए म्यांमार में रहेगा. लोगों को लोकतांत्रिक सरकार बनाने का फैसला करने में 4-5 साल लगेंगे और अगली बार म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार होगी, क्योंकि अब म्यांमार के लोगों ने लोकतंत्र का स्वाद चख लिया है.

उन्होंने कहा कि '60 के दशक में पैदा हुई पूरी पीढ़ी पिछले 50 वर्षों से जो नहीं कर पाई थी वह 2012 में कर दिखाया. इसलिए लोग लोकतंत्र के लिए जोर लगाएंगे. मुझे लगता है कि सैन्य तानाशाही अगले 5 वर्ष जनता को दबाने में सक्षम होगी.'

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