नई दिल्ली : नेता आंग सान सू की की नजरबंदी और सैन्य शक्ति द्वारा जब्ती करने के बाद म्यांमार में स्थिति अस्थिर हो रही है. हर गुजरते दिन के साथ यह और भयावह हो रही है. यह देखा जा सकता है कि म्यांमार के लोकतंत्र का भविष्य दांव पर है. देश में सभी अराजकता के बीच एक सवाल जो उठ खड़ा हुआ है, वह यह है कि रोहिंग्या शरणार्थियों का भाग्य सैन्य शासन के तहत सबसे उपेक्षित और भेदभाव वालों में से एक होगा.
वर्तमान में म्यांमार में एक लाख से अधिक लोगों को हिरासत में रखा गया है. जो पहले से ही म्यांमार की सेना द्वारा संरक्षित हैं. रोहिंग्याओं को स्वतंत्र रूप से बाहर जाने या उचित भोजन परोसने और उचित देखभाल करने की अनुमति नहीं है. यह पूछे जाने पर कि प्रत्यावर्तन प्रक्रिया कैसे होगी? श्रीपर्णा ने कहा कि सैन्य प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के साथ आगे बढ़ने वाला है. उन्होंने कहा कि म्यांमार की सेना के सत्ता में होने के बाद जो प्रत्यावर्तन प्रक्रिया पहले व्यवस्थित तरीके से हुई थी, वह वास्तव में में सत्ता के कारण थी. क्योंकि लोकतांत्रिक सरकार के सत्ता में आने के बाद अंतिम प्रत्यावर्तन का प्रयास विफल हो गया था.
सेना से नहीं कोई उम्मीद
श्रीपर्णा बताती हैं कि हाल ही में इस बात पर चर्चा हुई थी कि प्रत्यावर्तन के मामले सामने आ सकते हैं. लेकिन समस्या यह है कि प्रत्यावर्तन प्रक्रिया होने के बाद क्या होगा. यहां तक कि बांग्लादेश क्षेत्र के भीतर रहने वाले रोहिंग्या भी इस बात को लेकर बेहद आशंकित हैं कि अगर वे म्यांमार वापस जाते हैं, तो परिणाम क्या होंगे. क्योंकि उनकी नागरिकता, सुरक्षा आदि सहित कुछ मांगें हैं और इन सभी मांगों को म्यांमार की सेना ने नकार दिया था. लोकतांत्रिक सरकार के सत्ता में रहने के दौरान उम्मीद की कुछ झलक दिख रही थी, लेकिन अब म्यांमार की सेना के साथ ऐसा होने की उम्मीद नहीं है.
शिविरों की स्थिति बेहद खराब
शिविर क्षेत्रों की स्थिति बेहद अशुभ है. श्रीपर्णा ने कहा कि 2019 के बाद से रखाइन राज्य में इंटरनेट कनेक्शन की अनुपस्थिति ने स्थिति को और बदतर बना दिया है. अगर क्षेत्र में कोई हिंसा होती है, तो लोग व्यवधान का कारण नहीं जान पाएंगे. उन्होंने कहा कि उन इलाकों में पूरी तरह से ब्लैकआउट हो गया है. श्रीपर्णा बताती हैं कि अराकन और म्यांमार की सेना के बीच आंतरिक संघर्ष के कारण खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करते समय विश्व खाद्य कार्यक्रम को भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. यह विस्थापित लोगों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की उनकी क्षमता को सीमित करता है. वे कहती हैं कि तख्तापलट के बाद यह चुनौतियां बढ़ेंगी, क्योंकि म्यांमार की सेना को रोहिंग्याओं के जीवन की परवाह नहीं.