भोपाल।मध्यप्रदेश में 65 लाख की आबादी के बावजूद मुसलमानों में लीडरशिप क्यों खत्म हो रही है. क्या वजह है कि पिछले बीस साल से एमपी से कोई मुस्लिम नेता लोकसभा और राज्यसभा में नहीं पहुंचा. क्या वजह है कि बीते 45 सालों में केवल 9 मुस्लिम विधायक बनकर सदन तक पहुंच पाए. 2003 से 2013 तक के दस साल में पूरे एमपी से केवल एक मुस्लिम विधायक सदन में पहुंचते रहे. क्या ये तबका ही चुनावी राजनीति से तौबा कर रहा है. या फिर सियासी दलों ने इसे दरकिनार किया है. सवाल ये भी है कि अब 2023 के विधानसभा चुनाव में क्या स्थिति बनेगी.
चुनाव के मैदान में पीछे कयों है भाई: एमपी में करीब 65 लाख मुस्लिम वोटर हैं, लेकिन क्या इस तादात के मुकाबले इस वर्ग को चुनाव में नुमाइंदगी मिल पाई है. बीजेपी से तो मुसलमान कोई उम्मीद नहीं रखते, लेकिन खुद के सेक्युलर होने का दावा करने वाली कांग्रेस मुसलमानों की नुमाइंदगी की कितनी हिमयाती है. कांग्रेस ने कितने मौके मुसलमान नेताओं को दिए कि वो इस सदन से संसद तक मुसलमान की आवाज बन पाए. एमपी से आखिरी राज्यसभा सांसद गुफरान आजम थे. लोकसभा सांसद असलम शेर खान, उनके बाद पिछले बीस सालों में कोई मुस्लिम नेता लोकसभा या राज्यसभा में नहीं पहुंच पाया. कमोबेश यही स्थिति विधानसभा चुनाव में भी रही है.
बीते बीस साल में मुस्लिम नुमाइंदगी घटी है: जानकारी के मुताबिक 1956 में मध्यप्रदेश के गठन के बाद 1957 के पहले चुनाव में चार विधायक मुस्लिम समाज से चुने गए. इसी तरह 1962 के चुनाव में ये तादात बढ़कर सात हो गई. 1985 के विधानसभा चुनाव तक एमपी की विधानसभा में पांच से सात तक मुस्लिम समाज के विधायक चुनकर पहुंचते रहे. लेकिन 1990 के बाद ये आंकड़ा गिरना शुरु हुआ. 1990 के चुनाव में आरिफ अकील निर्दलीय चुनाव जीत कर सदन में पहुंचे. इनके अलावा अंसारी मोहम्मद गनी बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीत कर सदन में पहुंचे थे.