नई दिल्ली :अपने 55 साल के लंबे राजनीतिक करियर में मुलायम सिंह 3 बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. यही नहीं वे 7 बार लोकसभा के सांसद रहे और 10 बार विधायकी का चुनाव भी जीता. साथ ही एक बार वह विधान परिषद में भी अपनी हाजिरी लगायी है. 1967 में विधायक बनने वाले मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक जीवन केवल एक विधानसभा का चुनाव उम्मीदवार के रुप में हारे. तभी उनको चौधरी चरण सिंह ने विधान परिषद में भेजा था. 55 वर्षों की राजनीतिक पारी में मुलायम सिंह यादव ने कई सरकारें बनायीं और बिगाड़ी. इतने बड़े करियर में वह केवल दो चुनाव हारे थे. यह दोनों हार 1969 और 1980 में जसवंतनगर जैसी सुरक्षित सीट पर मिली थी. पहली बार उन्हें कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे विश्वंभर सिंह यादव ने तो दूसरी बार भी कांग्रेस के उम्मीदवार बलराम सिंह यादव से हारे थे. इन दोनों हार से सबक लेते मुलायम सिंह यादव ने अपनी ऐसी राजनीतिक पकड़ बनायी कि वह हर समय किसी न किसी सदन के सदस्य रहे. इसमें इनके सबसे बड़े मददगार इनकी मुंहबोली बहन के पति चौधरी राजेन्द्र सिंह थे.
मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन में कई बार अपने अभिन्न सहयोगियों से भी नहीं बनी. पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, अमर सिंह, आजम खान के साथ उन्हें रिश्तों को लेकर यूपी की राजनीति में भूचाल उठता रहा है. कई बार इनके आपसी रिश्तों में कड़वाहट भी आयी तो मुलायम सिंह ने पहले तो सख्ती दिखायी लेकिन बाद में दिल बड़ा करते हुए सबको मना लिया और उनकी बात भी मान ली. तभी तो वह विधानसभा और लोकसभा में हमेशा दस्तक देने वाले नेताओं में शुमार रहे. वह नए नए प्रयोग करने व प्रयोगों की गलती को सुधारने में नहीं चूकते थे. लेकिन उनका 1969 व 1980 का चुनाव हारना भी उनके जीवन का एक ऐसा पहलू है, जिसे कम लोग ही जानते हैं. इस कठिन समय में अगर उनके मुंहबोली बहन के पति अर्थात 'जीजाजी' ने मदद न की होती तो शायद मुलायम सिंह यादव राजनीति में वो मुकाम न हासिल कर पाते, जो आज लोगों के सामने है.
कौन थे मुंहबोली बहन के पति
हर किसी को यह मालूम होगा कि मुलायम सिंह यादव की केवल एक बहन थी और उनके बहनोई का नाम अजंत सिंह था. यह जानकारी सही है, लेकिन मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन में उनकी एक और बहन थी, जिनसे वह राखी बंधवाया करते थे. मुलायम सिंह की मुंहबोली बहन का नाम सरोज सिंह था और वह चौधरी राजेन्द्र सिंह की पत्नी थीं. चौधरी चरण सिंह के खासमखास चौधरी राजेन्द्र सिंह से मुलायम सिंह यादव का खास रिश्ता बताया जाता था. अलीगढ़ के इस कद्दावर नेता को मुलायम सिंह यादव को अपना बड़ा भाई मानते थे. उनकी पत्नी सरोज सिंह को बहन मानकर मुलायम सिंह यादव उनसे राखी बंधवाया करते थे. मुलायम सिंह यादव के 1980 में विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद विधान परिषद सदस्य और विधान परिषद के विपक्ष का नेता भी बनवाने का काम किया था. इसके पहले चौधरी चरण सिंह के मंत्रीमंडल में मंत्री बनाने के लिए चौधरी चरण सिंह से पैरवी भी की थी.
1989 में खुद हार गए राजेन्द्र सिंह
मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक पारी को संजाने संवारने वाले राजेन्द्र सिंह को 1989 के चुनाव में 64 वोटों से चुनाव हार मिली तो उनका राजनीतिक ग्राफ गड़बड़ा गया. जनता दल में एक बड़ा नेता कहे जाने वाले राजेन्द्र सिंह न तो खुद मुख्यमंत्री बन सके और न ही अजीत सिंह के पक्ष में विधायक एकत्रित कर पाए. इसी मौके का तत्काल फायदा उठाकर मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया और पार्टी के अधिकांश विधायकों को अपने पाले में कर लिया. कहा जाता है कि चौधरी अजित सिंह मुख्यमंत्री पद के लिए होने वाले शक्ति परीक्षण वाले दिन ही लखनऊ पहुंच सके थे. यही मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक करियर लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ और 5 दिसम्बर 1989 से 24 जनवरी 1991 तक के लिए मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने.
इसके बाद की कहानी तो हर कोई जानता है. एक चालाक राजनेता होने के नाते, उनमें राजनीति में उथल-पुथल को भांपने की अदभुत क्षमता थी. नवंबर 1990 में वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय सरकार के पतन के बाद, यादव चंद्रशेखर की जनता दल (सोशलिस्ट) पार्टी में शामिल हो गए और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री के पद पर बने रहे. कांग्रेस ने अप्रैल 1991 में समर्थन वापस ले लिया, इससे उनकी सरकार गिर गई. मुलायम सिंह मध्यावधि चुनावों में भाजपा से हार गए.
1992 में, यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी की स्थापना की और फिर नवंबर 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के लिए बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन ने राज्य में भाजपा की सत्ता में वापसी को रोक दिया और वो कांग्रेस और जनता दल के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.
उत्तराखंड के लिए अलग राज्य की मांग के आंदोलन पर मुलायम का रुख उतना ही विवादास्पद था, जितना कि 1990 में अयोध्या आंदोलन पर. 2 अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर में अयोध्या के कार्यकर्ताओं और तत्कालीन उत्तराखंड के कार्यकर्ताओं पर फायरिंग उनके शासन काल में काले धब्बे की तरह रहे.