ग्वालियर।सिंधिया राज घराने की देश के स्वतंत्रतापूर्व महारानी और बाद में राजमाता रहीं विजयाराजे सिंधिया की पुत्री और मध्यप्रदेश की खेलमंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने अचानक अगला विधानसभा चुनाव न लड़ने की घोषणा करके जहां राजनीति में सनसनी मचा दी और भाजपा को भी चौंका दिया. हालांकि अभी तक भाजपा के आलाकमान ने इस मामले पर चुप्पी साध रखी है, लेकिन यशोधरा ने शिवपुरी जाकर फिर अपना संकल्प दोहरा दिया. यशोधरा के निर्णय ने ग्वालियर चम्बल में बीजेपी की ही नही जयविलास पैलेस की राजनीति में भी बड़े बदलाव आएंगे. एक तरफ अब राजनीति में सिर्फ ज्योतिरादित्य सिंधिया का एकछत्र राज हो जाएगा, वहीं राजमाता की परंपरा में बीजेपी में सक्रिय उन लोगों का भविष्य धुन्धला हो जाएगा, जिनकी अगुआई यशोधरा राजे किया करतीं थी.
हमेशा से जय विलास से संचालित होती थी दो राजनीति:1947 में देश आजाद होने के बाद ग्वालियर रियासत की महारानी राजमाता विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस में शामिल हो गई और फिर वह विधायक बन गई. इसके बाद ग्वालियर चंबल संभाग की राजनीति में कांग्रेस में उनका दखल बढ़ गया, लेकिन 1967 में उनके तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से विवाद हो गया और राजमाता ने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ दी. इसके कारण द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार अल्पमत में आ गई और कांग्रेस की सरकार गिर गई.
राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने जन संघ के साथ मिलकर नई सरकार का गठन किया, यह देश की संभवत पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी. गोविंद नारायण सिंह इस सरकार के मुख्यमंत्री बनाए गए, हालांकि यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और अगले मुख्य चुनाव में जनसंख्या करारी हार हुई और फिर कांग्रेस की वापसी हो गई, लेकिन राजमाता विजयराजे सिंधिया फिर कांग्रेस में वापस नहीं लौटी और वह स्थाई रूप से जनसंख्या बनी रहीं. वह जनसंख्या एक महत्वपूर्ण जनसंख्या महत्वपूर्ण पिलर के रूप में स्थापित हो गईं.
महल में फिर कांग्रेस का उदय:1970 में राजमाता के बेटे माधवराव सिंधिया लंदन से पढ़ाई करके वापस ग्वालियर लौटे थे, उस समय चुनाव का माहौल था और लोकसभा के चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी. राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने उन्हें गुना संसदीय क्षेत्र से मैदान में उतार दिया, वह भी जनसंख्या टिकट पर उतरे थे. तब माधवराव सिंधिया मुश्किल 25 या 26 साल की उम्र के थे, राजमाता और सिंधिया परिवार के प्रभाव के कारण माधवराव सिंधिया ने शानदार जीत हासिल की और वह पहली बार लोकसभा में पहुंचे. लेकिन माधवराव सिंधिया की जनसंघ से दोस्ती ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी, उनके जनसंघ और राजमाता यानी अपनी मां दोनों से लगातार मतभेद बढ़ते गए. तब तक इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया. राजमाता लंदन चली गई और माधवराव सिंधिया अपने ससुराल नेपाल. इस बीच में इंदिरा गांधी के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के संपर्क में आए और फिर कांग्रेस की तरफ उनका झुकाव हो गया.
1977 में जब इमरजेंसी हटाने के बाद पहले आम चुनाव हुए तो कांग्रेस की राजा मंदी से माधवराव सिंधिया कांग्रेस की सगुना संसदीय क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरे, उनके खिलाफ कांग्रेस ने कोई प्रत्याशी नहीं उतरा और माधवराव सिंधिया मध्य प्रदेश में निर्दलीय सांसद के रूप में चुने गए. 1977 में जब कांग्रेस विरोधी लहर चल रही थी, तब माधवराव सिंधिया प्रदेश के उन सांसदों में शामिल थे, जो गैर जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जीते थे. गुना से निर्दलीय जीत के बाद कुछ समय बाद ही माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली और जय विलास पैलेस की राजनीति दो भागों में बट गई. एक भाग में राजमाता विजयाराजे सिंधिया जनसंख्या सियासत करती थीं, तो जय विलास के ही दूसरे भाग में माधवराव सिंधिया कांग्रेस की राजनीति कर रहे थे. यह सिलसिला राजमाता विजयाराजे सिंधिया की मौत तक निरंतर जारी रहा, बल्कि यू कहें की राजमाता की मौत के बाद भी यह सिलसिला चलता रहा.
यशोधरा ने संभाली राजमाता की विरासत:25 जनवरी 2000 को राजमाता विजयाराजे सिंधिया का निधन हो गया, लेकिन उनके साथ पहले से ही सक्रिय उनकी बेटी यशोधरा राजे सिंधिया ने जनसंघ में उनके सियासी विरासत को संभाल लिया. तब से लगातार ग्वालियर गुना शिवपुरी अशोक नगर में राजमाता के समर्थकों शुभचिंतकों और प्रशंसकों के बीच सक्रिय होकर उनको एकजुट करती रही और फिर उन्होंने शिवपुरी से विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीतीं. शिवपुरी विधानसभा क्षेत्र से लगातार चार बार विधायक निर्वाचित हुई और बीजेपी सरकार में विभिन्न विभागों की मंत्री भी रही, भारतीय जनता पार्टी ने एक बार उनको उपचुनाव में ग्वालियर संसदीय क्षेत्र से भी मैदान में उतारा और वह जीतकर संसद में भी गई.
इस तरह से जय विलास पैलेस में दोनों ही दलों की हिस्सेदारी बनी रही, लेकिन जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में शामिल कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए तो स्थितियां गड़बड़ आने लगी. बीजेपी में यशोधरा की जगह सिंधिया को भारी तवज्जो मिलने लगी और तभी से यशोधरा अपने को अलग-अलग महसूस करने लगी, वे किसी न किसी बहाने से अपनी नाराजगी और अपने तेवर लगातार 2 वर्ष से दिखाती चली आ रही है.