ज्ञान, ज्ञेय अर्थात जो जानने योग्य हो तथा ज्ञाता ये तीनों कर्म को प्रेरणा देने वाले कारण हैं. करण अर्थात इन्द्रियां, कर्म और कर्ता इन तीनों से कर्म संग्रह होता है. अपने-अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है. अपने स्वभाव के अनुसार निर्दिष्ट कर्म कभी भी पाप से प्रभावित नहीं होते हैं. मनुष्य को चाहिए कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो कभी नहीं त्यागे. Geeta Quotes. Geeta Sar. Aaj Ki Prerna . Geeta Gyan .
Todays Motivational Quotes: मनुष्य को स्वभाव से उत्पन्न दोषपूर्ण कर्म को कभी नहीं त्यागना चाहिए, जो व्यक्ति...
मनुष्य को स्वभाव से उत्पन्न दोषपूर्ण कर्म को कभी नहीं त्यागना चाहिए. जो आत्मसंयमी, अनासक्त एवं भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था को प्राप्त कर सकता है. योगीजन आसक्ति रहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं. जो व्यक्ति परमेश्वर का स्मरण करने में निरंतर अपना मन लगाए रखकर अविचलित भाव से भगवान का ध्यान करता है. वह अवश्य ही परमेश्वर को प्राप्त होता है. भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं. जो व्यक्ति कर्म फलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्ति रहित होकर अपना कर्म करता है. वह पाप कर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है. जैसे कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है. Motivational Quotes: Geeta Quotes. Geeta Sar.
कभी न संतुष्ट होने वाले काम का आश्रय लेकर तथा गर्व के मद में डूबे हुए आसुरी लोग, मोहग्रस्त होकर क्षणभंगुर वस्तुओं के द्वारा अपवित्र कर्म का व्रत लिए रहते हैं. प्रत्येक कार्य प्रयास दोषपूर्ण होता है. जैसे अग्नि धुएं से आवृत रहती है. मनुष्य को स्वभाव से उत्पन्न दोषपूर्ण कर्म को कभी नहीं त्यागना चाहिए. जो आत्मसंयमी, अनासक्त एवं भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था को प्राप्त कर सकता है.
योगीजन आसक्ति रहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं. जो व्यक्ति परमेश्वर का स्मरण करने में निरंतर अपना मन लगाए रखकर अविचलित भाव से भगवान का ध्यान करता है. वह अवश्य ही परमेश्वर को प्राप्त होता है. भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं. जो व्यक्ति कर्म फलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्ति रहित होकर अपना कर्म करता है. वह पाप कर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है. जैसे कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है.