हैदराबाद : अनैतिक, भ्रष्ट और अमानवीय राजनीति में लिप्त पार्टियों के कारण भारत में चुनाव प्रक्रिया कुछ हद तक अपनी पवित्रता खो चुकी है. यह हर पांच साल में लगने वाले प्रलोभनों के मेले के रूप में मशहूर है. तमिलनाडु के थेनी निर्वाचन क्षेत्र से सांसद रवींद्रनाथ के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया गया है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि उन्होंने अपनी संपत्ति के बारे में तथ्य छिपाकर और मतदाताओं को उपहारों का लालच देकर जीत हासिल की.
इसकी सुनवाई करने वाले मद्रास उच्च न्यायालय ने हाल ही में फैसला सुनाया कि रवींद्र का चुनाव अवैध था. सवाल यह उठता है कि इसी तरह से देशभर में कितने विधायक और सांसद चुने जाएंगे ? जद (एस) विधायक गौरी शंकर स्वामी को मार्च में विधायिका से अयोग्य घोषित कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने 2018 के राज्य चुनावों में लोगों को नकली बीमा बांड वितरित किए थे.
इसमें कोई दोराय नहीं है कि जिन लोगों ने लोकतंत्र का मजाक उड़ाया और कुटिल तरीकों से जीत हासिल की, उन्हें तुरंत बर्खास्त किया जाना चाहिए. अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद ऐसे दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने का क्या मतलब है ?
सात साल पहले, केंद्रीय चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में नसीम जैदी ने घोषणा की थी कि गलत विवरण के साथ प्रमाण पत्र जमा करने वाले उम्मीदवारों को दो साल की जेल की सजा दी जानी चाहिए और छह साल के लिए कोई अन्य चुनाव लड़ने से रोक दिया जाना चाहिए.
आयोग ने रिश्वतखोरी और मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव के मामलों में आरोप दर्ज करने के चरण में ही संबंधित सांसदों और विधायकों को अयोग्य घोषित करने का प्रस्ताव रखा. साल 2017 में, आयोग ने केंद्र को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में तदनुसार संशोधन करने के लिए पत्र लिखा था.
फिर भी, लाख टके का सवाल यह है कि क्या सिस्टम को उस हद तक साफ़ करना कभी संभव होगा! जैसा कि 'लोकनायक' जयप्रकाश नारायण ने एक बार वर्णन किया था कि सच्ची राजनीति लोगों की खुशी को बढ़ावा देने के बारे में है. जो पार्टियां ऐसा सपने में भी नहीं सोचतीं, वे झूठे, अवैध और अराजकतावादी नेता बना रही हैं.