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बिहार के मक्का किसानों का दर्द, जानें क्यों नहीं करना चाहते मक्का की खेती

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Published : Jan 14, 2021, 5:00 AM IST

भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा मक्का उत्पादक देश है. चावल और गेहूं के बाद देश की तीसरी सबसे बड़ी फसल भी मक्का ही है. इसी मक्के की स्थिति का जायजा लेने के लिए आज हम पहुंचे हैं बिहार के पूर्णिया. आइये जानते हैं किसानों से की आखिर वे मायूस क्यों हैं.

मक्का किसानों का दर्द
मक्का किसानों का दर्द

पूर्णिया : रबी के सीजन के दौरान देश में मक्का के कुल उत्पादन का 80 फ़ीसदी हिस्सा बिहार से आता है लेकिन, अब हाल ये है कि किसान फसल की लागत तक न निकल पाने से निराश हैं. फसलों की सही कीमत न मिल पाने के कारण गांव के कई किसान मेहनत करके उपजाए मूली, मक्का सहित कई फसलों को सड़क पर फेंकने या घर में रखकर सड़ाने के लिए मजबूर हैं.

भारत विश्व का छठा मक्का उत्पादक देश


बिहार में किसान या तो मक्के के न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए या फिर मक्के की सही कीमत के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं. दशकों से सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर किसान के उपजाए फसल की कीमत तय करती है और किसान उस मूल्य या उससे कम पर अपनी फसल को बेचने के लिए मजबूर हैं.

समर्थन मूल्य में भारी गिरावट

बिहार में 80 फीसदी मक्का की पैदावार
देश में रबी सीजन की बात करें तो इस समय के कुल उत्पादन का 80 फीसदी मक्का बिहार में पैदा होता है. बिहार के 10 जिले समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और भागलपुर में देश के कुल मक्का उत्पादन का 30 से 40 प्रतिशत पैदावार होता है. बात करें पूर्णियां कि तो यहां जिले के गुलाबबाग कृषि उपज मंडी मक्के के कारोबार के लिए मशहूर है, जहां से देश के विभिन्न प्रांतों में मक्के की सप्लाई होती है.

बिहार किसान मजदूर संघ, संस्थापक के संस्थापकअनिरुद्ध मेहता कहते हैं किमक्का 6 महीने की खेती है, मक्का लगाने में 25 से 30 हजार रुपये एक एकड़ में खर्चा आता है. भारत सरकार के समर्थन मूल्य तय करने के बाद भी आज तक सरकार ने समर्थन मूल्य पर मक्का नहीं खरीदा है, इसलिए किसान 900 से 1000 रुपये प्रति क्विंटल तक मक्का बेच रहा है, जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है.

मक्के पर एमएसपी का कोई मतलब नहीं
किसानों को मक्का पैदा करने की लागत प्रति क्विंटल 1213 रुपये आती है. जबकि यहां व्यापारी इसे 1100-1200 में खरीदते हैं. हालांकि, भारत सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये निर्धारित किया है. बिहार में मक्के पर समर्थन मूल्य का कोई मतलब नहीं है क्योंकि बिहार सरकार न तो मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है और न ही गेहूं और चावल की तरह पैक्स के माध्यम से मक्के की खरीद करती है.

किसान नहीं करना चाहते मक्का की खेती .

किसान प्रसाद विश्वास कहते है जिस तरह पैक्स में धान और गेहूं की खरीद हो रही है उसी तरह अगर पैक्स में मक्का की भी खरीद होना चाहिए. ताकि किसानों को मक्का का सही दाम मिल सके.

किसान अंकित आलोक कहते है कि पिछली बार मक्के का अच्छा दाम मिला था, प्रति क्विंटल मक्के के 1800 से 2000 रुपये मिल गए थे, लेकिन इस बार प्रति क्विंटल 1000 रुपये से भी कम मिले.

बिहार में मक्का की खेती

समर्थन मूल्य में भारी गिरावट

2020 में मक्के की कीमत सीधे 5 साल पीछे 1000 से 1150 रुपये प्रति क्विंटल पर पहुंच गई है. बिहार के सीमांचल इलाके खासकर पूर्णिया और इसके आसपास के जिलों में मक्के की रिकॉर्ड खेती होती है. मिट्टी के अनुसार भी मक्का इस इलाके के लिए उपयुक्त फसल है लेकिन इस बार मक्का किसान मायूस हैं. मायूसी और घाटा इतना है कि किसान अगले साल से मक्के की खेती छोड़ने पर भी विचार कर रहे हैं.

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एक्टिविस्ट विश्वजीत कुमार मक्के का उत्पादन इसलिए भी फायदेमंद होता है, क्योंकि 1 एकड़ में जितने गेहूं और चावल की उपज होती है, उससे 2.5 से 3 गुना अधिक मक्के की उपज होती है. मक्के का उपयोग जानवर और इंसान दोनों करते हैं. साथ ही कई पैकेटबंद उत्पादों में मक्के का व्यापक इस्तेमाल होता है, इसलिए इसकी खपत भी अच्छी खासी है.

कृषि मंत्री ने दिया एमएसपी का आश्वासन
वहीं, बिहार के कृषि मंत्री अमरेंद्र प्रताप सिंह ने बिहार में भी मक्के की खरीद एमएसपी पर करने का आश्वासन देते हुए कहा कि एमएसपी किसानों के लाभ के लिए है और किसानों को इसका लाभ मिले ये जरूरी है.

80 फीसदी मक्का की पैदावार

बता दें कि मक्का किसानों को आगे बढ़ाने के लिए खगड़िया जिले में सरकार की मदद से प्रिस्टिन मेगा फूड पार्क बनना था. इसमें मक्के से बनने वाली चीजों की 34 यूनिट लगाई जानी थी लेकिन, आज तक कुछ नहीं हुआ. पार्क बना होता तो इसमें मक्के की खपत होती.

किसानों की सरकार से मदद की मांग
फिलहाल, किसानों का कहना है कि व्यापारी उनका भरपूर शोषण करता है. अनलोडिंग और अपना 2 फीसदी गद्दी खर्च भी किसान के पैसे से ही काट लेता है. यहां तक कि जिस बोरे में किसान मक्का ले जाता है उसका पैसा भी नहीं देता. अगर उन्हें वाजिब सरकारी सहायता मिले तो वह मक्के के सहारे इस इलाके की तस्वीर और तकदीर बदल सकते हैं.

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