नई दिल्ली : जिंदगी का तजुर्बा लिये नजरों से जमाने का अक्स देखकर उसमें दबे हालात के दर्द को महसूस करना, वक्त की करवटों से फिजाओं में बनी सिलवटों को देखना और पत्ते-पत्ते, बूटे-बूटे की नरमी व खुश्बू को महसूस करके हर आमो-खास ही नहीं, किसी अदना इंसान की भी जिंदगी के पेचो-खम को कलम की करवटों से पन्ने पर उतारना भी शायरी है. हालात के नब्ज को स्याही में घोलकर संवेदनाओं की करवट देकर अल्फाज में उतारने की कला जिस भी शायर में आ गई वो ही शायर मशहूर हो गया. और ऐसी शायरी जमाने की जुबां से लेकर तारीख के सीने में अपना घर बना लेती है. ऐसी ही शायरी महफिलों की शान, गुलकारों का मान बनती है. हालात से जूझकर, जमाने की बंदिशों से जुदा ऐसा मुकाम बनाकर ही एक अदना सा इंसान काबिले एहतराम शायर बन गया. जिसको आज जमाना और महफिलें, सुखनवरी का आदर्श और कविता का प्रतिमान कहती हैं. जिसका नाम है फैज अहमद फैज (Faiz Ahmed Faiz). फैज जो नाम अल्लामा इकबाल के बाद दुनिया के कई इलाकों और खासतौर से पूरे एशिया में बड़े अदब-ओ-एहतराम के साथ पढ़ा और सुना जाता है.
फैज शायद शायरी की दुनिया (Poet and Adeeb Faiz Ahmed Faiz) का वो अकेली शख्सियत गुजरे हैं, जिनका उपनाम भी उसके हकीकी नाम की तरह शान-ओ-शोहरत का पैमाना और कलमकारी का मरकज कहा जा सकता है. हर दौर का शायर, फनकार और पत्रकार मौजूदा हालात से ज्यादा प्रेरित होता है. उनकी कलम में वही अक्स स्याही में डूबकर कागज पर उतरते हैं जिन्हें वह देखकर, उसमें दबी टीस को महसूस करके, दर्द का अहसास ही निचोड़ता है. कभी इनमें शायर की जिंदगी के शुरुआती दौर का दर्द होता है, तो कभी जवानी की शोखियां और दोस्तों का अल्हड़पन झलकता है और कभी जमाने का सारा दर्द, जिंदगी के तमाम अहसासात दो लाइनों में ही सारी सीख दे जाती हैं. फैज की शायरी में अध्यात्म से लेकर इंक्लाबी जोश में डूबी नसीहतें जमाने को दर्स देने का काम करती हैं. जिन पर कभी हुकूमतों का शिकंजा कसा जाता है तो कभी दुनिया के पटल पर एजाजो-इनाम का वो आगाज भी होता है. जिसमें दुनिया पूर्व से लेकर पश्चिम तक शायरी की शान के एक धागे में पिरोकर जमाने की तमाम संस्कृतियों को मजबूत करने का जरिया बनती हैं. सोवियत हुकूमत का एजाजी 'लोटस' और पाकिस्तान का 'निशाे-ए-इम्तियाज' व नोबेल प्राइज के लिए नॉमिनेशन इसका सबूत पेश करती हैं. जिसकी जिंदगी का सरमाया हिंन्दुस्तान के अदना से शहर के एक अनाम से गांव से शुरू होकर शायरी की मयारी दुनिया में सुखनवरी का खजाना बन गया.
अदना से खास और शानदारी का ये सफर पार्टिशन से पहले के हिन्दुस्तान में शुरू हुआ था. फैज की पैदाइश पांच नदियों के पानी से गुलजार रहने वाले पंजाब प्रांत के नारोवाल जिले की एक छोटी सी बस्ती काला कादिर में 13 फरवरी 1911 हुआ था. इनकी शायरी के उत्कर्ष पर आने के बाद फ़ैज़ की यादगार व एजाज के तौर पर पाकिस्तान हुकूमत ने फैज के नाम पर इस गांव का नाम फैज नगर कर दिया. फैज की शायरी का मयार ये रहा है कि इश्क में जो कलम डूबे तो आशिकी गालिब न मीर के साथ मालूम पड़ती है. जो कमल अक़दार की खातिर, जुल्मत के खिलाफ हुकूमतों को तोलने पे आए तो दास्तान इंक्लाब की लिखी जाती है. ऐसा इंक्लाब फैज अहमद फैज की कलम से शुरू हुआ. कहते हैं पन्ने पर उतरे शब्दों में आवाज नहीं होती, ताकत नहीं होती, अहसास नहीं होते, संवेदनाएं नहीं होतीं, संजीदगी मर चुकी होती है. दर्द नहीं होता दर्स नहीं होता, मगर ये सब उस दिन झूठ साबित हुआ. जब पहली बार पन्ने पर उतरी मुर्दा मानिंद अल्फाज की शक्ल में फैज की शायरी से पाकिस्तान की तख्ते हुकूमत भी हिलने लगी थी.
गुलाम भारत में फैज की इंक्लाबी शायरी के शोले
उर्दू के बाकमाल शायरों की फेहरिस्त में काफी पहले ही फैज अहमद फैज का नाम बाअदब लिखा जाने लगा था. ये वो दौर था, जब दुनिया के बेशकतर हिस्सों में दमन का चक्र चल रहा था. जुल्मत की दास्तानें लिखी जा रही थीं. ब्रिटिश परचम कहीं उखड़ने लगे थे तो कहीं उखाड़ने की तैयारी थी. कमोबेश यही हालात हिंदुस्तान में भी बना हुआ था. देश में मुग़ल सल्तनत लाल किले में कैद कर दी गई थी. आखिरी मुगल बादशाह को नजरबंद करके रंगून भेज दिया गया था. इसी दौरान फिरंगियों की भड़काई सांप्रदायिकता की आग में हिंदुस्तान झुलस रहा था. इन तमाम अहसास और चिंगारियों को समेटे फैज की शायरी इंक्लाब को नई ताबीर देने का भी काम किया. फैज ने उस दौर में अपनी शायरी में समाज के आइने का अक्स उकेरा जो पढ़ते, सुनते-सुनाते जमाने के दिलों में चस्पा होने लगा. फैज ने अपनी शायरी के शोलों से हिंदुस्तानियों के सीनों को इंक्लाब की भट्ठी बनाने का काम भी किया अगर ये कहा जाए तो कत्तई गलत नहीं होगा. हिंद की गुलामी की जंजीरों को पिघलाने में हिंदी पट्टी से लेकर उर्दू और फारसी के हजारों शायरों का की कलम से निकले इंक्लाबी शोलों का अहम किरदार रहा है.
जानें क्यों आजादी के दौर में दर्द में डूब गए थे फैज
पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में और आसपास की धरती पर तुर्की, श्रीलंका, म्यांमार समेत दुनिया के कई हिस्सों में जब आजादी आई तो उसका चेहरा वहां के लोग पहचान नहीं पा रहे थे. उस आजादी को देखकर लोग ठगे से महसूस कर रहे थे. जब हिंदुस्तान को आजादी मिली तो गांधीजी बेलियाघाट की तरफ थे. देश के तमाम हिस्सों में दंगाई माहौल था. सांप्रदायिकता का घोला गया जहर अपना असर दिखा रहा था. गंगा-जमुनी तहजीब कहीं सियासत के रेगिस्तानों में रवां-दवां हो चुकी थी. बची-खुची तहजीब और रहा-सहा भाईचारा अपनी लाज, अपना आन बचाने को किसी कोने में दुबका सा नजर आ रहा था. दानिशमंदों की न कोई सुन रहा था और न किसी को दानिशवरी से कोई वास्ता रह गया था. जो कल तक फिरंगी हुकूमत के लिए अजाब बनकर एक साथ मोर्चा ले रहे थे. अंग्रेजों के जाते ही अपने ही दस्ते-गिरेबां होने लगे. हिंदू-मुसलमान आपस में ही कटने-मरने लगे थे. ऐसे हालात में लोगों के जमीर को जगाकर, उनके दिमागों को खोलने के लिए फैज साहब ने जो लिखा..वो आज भी अदब के फलक पर इबरत का आईना बन गया है.
'फैज की जिंदगी' और अदावत से अलकाब व एजाज का सफर
फैज साहब को पाक हुकूमत ने जितना प्रताड़ित किया. जितनी बार कैद किया, हर बार उनकी शख्सियत और उनकी शायरी का मयार बढ़ता गया. उनकी नज्मों की मकबूलियत मुसलसल बढ़ती रही. फिर वो दौर भी आया जब आलमी सतह पर उन्हें बावकार अंदाज में सरे-फेहरिस्त रखा जाने लगा. एजाज का दौर तो लगातार जारी रहा. इस अजीम शायर व अदीब को उस दौर के शीर्ष की हुकूमत और सबसे ताकतवर मुल्क सोवियत संघ ने 1962 में लेनिन शांति पुरस्कार से नवाजा. उनकी शायरी का मयार और नज्मों का तेवर हर दौर में अवाम और हुकूमतों के बीच अलर्ट और मॉडरेटर की मानिंद मौजूद रहा. पाकिस्तानी मानवाधिकार समाज ने उन्हें शांति पुरस्कार से नवाज़ा. इसी के बाद फैज साहब को निगार अवार्ड से भी नवाजा गया. इस दौर में फैज की शख्सियत के आगे तमाम एजाज हकीकत में कम कद लगने लगे थे. निशान-ए-एजाज पर फैज का नाम दर्ज होना ही उसका मान बढ़ाने वाला बन गया था. इसके बाद साल 1976 में उनको अदब का लोटस बतौर एजाज दिया गया. इस दौर तक आते-आते पाकिस्तान की हुकूमत और तमाम सियासी जमातों में फैज साहब की बाकमाल शख्सियत का अलहदा मुकाम बन चुका था. 1984 में इस अजीम अदीब और शायर का नाम नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया. लेकिन ये वो मुकाम था जहां फैज का कद, उनका किरदार तमाम एजाज और इस तरह के सारे सम्मान से बालातर और बुलंद था. उनकी लोकप्रियता के आगे तमाम सोच के खित्ते-खाने बिखर चुके थे. उनकी स्वीकार्यता मुल्क व देशों की दीवारों से भी अब नहीं टकराती थी. पूरी दुनिया में उनके चाहने और उन्हें हसरत की निगाहों से देखने वाली जमातें तैयार हो गई थीं. बदलाव के ऐसे दौर में पाक हुकूमत को भी सिर नवाना पड़ा. साल 1990 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज' से नवाजा. इस फानी दुनिया से लामकाम होने के बाद पाक हुकूमत को शायद अपनी गलियों का अहसास हो गया था. लेकिन अफसोस के बीच 'निशान-ए-इम्तियाज' की शान बढ़ाने वाले वो हाथ नहीं थे. जिसकी कलम की नोक पर पाक हुकूमत को कई बार अपने वजूद के लिए जूझना पड़ा. 20 नवंबर 1984 को नोबेल से जुड़े फैज का नाम इस फानी दुनिया में शायरी का परचम बन गया. उनके इंतकाल के बाद अदब की दुनिया में ऐसा अंधेरा छाया. जिससे निकलने के लिए आने वाला हर दौर उनकी कलम की काली स्याही में ही दौर की रोशनी तलाशता फिरेगा. हर दौर के साहित्यकार ये मानते हैं कि फैज की कलम से सूफियाने अंदाज के साथ इंक्लाब की स्याही रिसती है. जो सही मायनों में मुल्कों की सरहद, जमातों की बंदिशों से परे कोम के परचम से बुलंद महज इंसानियत का पैगाम लिखती है. हकीकत में फैज साहब की शायरी ने नस्लों को दिशा और हिम्मत बख्शने का काम किया है. नोबेल प्राइज के लिए नामित होने कुछ दिन बाद 20 नवंबर 1984 को फैज इस मर्त्यलोक से कूच कर गए.